भू - क्षरण, इकाई 2, ( कृषि विज्ञान कक्षा 7 )

इकाई - 2


भू- क्षरण 


भू- क्षरण की परिभाषा
भू- क्षरण के प्रकार
भू- क्षरण के रूप
मृदा संरक्षण की परिभाषा एवं महत्व
मृदा संरक्षण के उपाय


क्या आप जानते हैं बरसात के दिनों में जो पानी बहकर नदी एवं नालों में जाता है वह मटमैला एवं गंदला क्यों होता वास्तव में वर्षा के पानी के साथ - साथ भूमि की ऊपरी सतह के महीन कण पानी में घुलकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जमा होते जिससे उस स्थान का कटाव होता है । आँधी या चक्रवात के आने पर भी मृदा कण ऊपर उठकर हवा के साथ उड़ते रहते हैं । इससे शुष्क एवं रेतीले क्षेत्र ज्यादा प्रभावित होते हैं । 

" भूमि के कणों का अपने मूल स्थान से हटने एवं दूसरे स्थान पर एकत्र होने की क्रिया को भू क्षरण या मृदा अपरदन कहते हैं । " 

* आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में उपलब्ध कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग आधा क्षेत्रफल जल एवं वायु क्षरण से प्रभावित है । 

* भू - क्षरण के कारण नदी , नालों व समुद्रों में रेत व मिट्टी जमा होने के कारण वे उथली हो रही हैं जिसके फलस्वरूप बाढ़ एवं पर्यावरण की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । जिससे धन , जन एवं स्वास्थ्य की हानि होती है । 

* भू - क्षरण के फलस्वरूप भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता घट जाती है जो देश की अर्थ व्यवस्था कमजोर करती है । 

क्या कारण है कि आज नदी तल एवं समुद्र तल ऊंचा होता जा रहा है । पृथ्वी के अधिकांश भूभाग के डूबने का खतरा उत्पन्न हो गया है ? इन सबका कारण भू - क्षरण है । भू - क्षरण अनेक कारकों ( शक्तियों ) द्वारा होता रहता है जैसे - वर्षा , वायु , गुरुत्वाकर्षण बल एवं हिमनद । सबसे अधिक भू - क्षरण जल एवं वायु द्वारा होता है । 


विशेष पानी के साथ ऊपरी उपजाऊ मिट्टी बहकर नदी , नालों एवं समुद्र में चली जाती है । एक अनुमान के अनुसार एक हेक्टेयर खेत से लगभग 16 . 3 टन उपजाऊ मिट्टी प्रति वर्ष बह जाती है जिससे पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं ।



भू- क्षरण के प्रकार 
भू - क्षरण दो प्रकार का होता है 

1 . प्राकृतिक या सामान्य भू - क्षरण 
2 . त्वरित ( मनुष्यकृत ) भू - क्षरण 


1. प्राकृतिक भू- क्षरण- 
 -यह क्षरण प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा होता है । इसकी गति धीमी व विनाश रहित होती है । इसमें जितनी मिट्टी बनती है लगभग उतनी ही मिट्टी का कटाव होता है जिससे सन्तुलन बना रहता है । इसी के फलस्वरूप भूपटल पर पठार , मैदान , घाटियाँ एवं विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ बनती हैं । 


2. त्वरित भू- क्षरण- 
 चारागाहों में उगी घास की अनियमित चराई , वनों की अंधाधुंध कटाई आदि से भू - सतह पर स्थित वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं जिसके कारण भू - क्षरण की गति तीव्र हो जाती है , इस प्रक्रिया को त्वरित भू - क्षरण कहते हैं । 


भू- क्षरण के रूप- 

भू - क्षरण के कारक भू - क्षरण की क्रिया वर्षा या वायु का मृदा से सम्पर्क होते ही प्रारम्भ होती है जैसे - जैसे वर्षा या वायु वेग घटता - बढ़ता है वैसे - वैसे भू - क्षरण का रूप व प्रकार बदलता रहता है । भू - क्षरण मुख्य रूप से दो कारकों द्वारा होता है , जल एवं वायु के द्वारा होने वाले भू - क्षरण को क्रमश : जलीय भू - क्षरण एवं वायु भू - क्षरण कहते हैं । 


1. जलीय भू- क्षरण - 
बरसात के दिनों में पानी के साथ बहती मिट्टी का अवलोकन करने पर आप पायेंगे कि ढालू भूमि में मिट्टी पानी के साथ बहकर पतली - पतली नालियाँ बनाती है या पुराने पेड़ों के जड़ों की मिट्टी बह जाने के कारण जड़ें नीचे तक दिखाई देने लगती हैं । ऐसा क्यों होता हैं ? यह सब जलीय भू - क्षरण के कारण होता है । यह निम्नलिखित प्रकार से होता है ।


(i) वर्षा बून्द क्षरण - 
 इस प्रकार के भू - क्षरण में वर्षा की बूंदे जब मृदा से टकराती हैं तो मिट्टी के कण बिखर ( छिटक ) जाते हैं । आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वर्षा की बूंदे मिट्टी के कणों को एक मीटर ऊँचा एवं एक मीटर दूर तक उछाल सकती हैं । 


(ii) परत भू- क्षरण - 
 खेत से पानी बहते हुए धीरे चित्र 2 . 1 वर्षा की बूंदों द्वारा भू - क्षरण धीरे मृदा की ऊपरी परत को अपने साथ बहा ले जाता है । यह प्रक्रिया सामान्य रूप से दिखाई नहीं देती । खेत से बहता हुआ गंदा पानी प्रदर्शित करता है कि मृदा के ऊपरी भाग का कुछ अंश खेत के बाहर जा रहा है जिसमें मृदा के साथ - साथ पोषक तत्त्व भी होते हैं ।


(iii) अल्पसरिता भू- क्षरण - 
भूमि ढालू होने से या अत्यधिक वर्षा से पानी तेज धारा के रूप में बहता है तो , बहता हुआ पानी छोटी - छोटी नलिकाओं का जाल बना देता है जिसे अल्पसरिता भू - क्षरण कहते हैं । ये नलिकायें जुताई - गुड़ाई के समय समाप्त हो जाती हैं । खेत को परती छोड़ने पर इस प्रकार का भू - क्षरण देखने को मिलता है ।


(iv) खड्या अवनालिका भू- क्षरण - 
अल्पसरिता नलिकाओं पर ध्यान न देने से आगे चलकर ये आपस में जुड़ जाती हैं और गहरी एवं चौड़ी नालियों का रूप धारण कर लेती हैं । इनको भू - परिष्करण की क्रियाओं से समतल नहीं किया जा सकता है ।


(v) बीहड़ भू- क्षरण - 
जब वर्षा होती है तो नदियों के दोनों किनारों से वर्षा का जल बह - बह कर नदियों में आता है । इस जल के बहाव से भूमि में कटाव होता है । इससे भूमि में प्राकृतिक नालियाँ बन जाती हैं । आगे चलकर यही नालियां नाले एवं बीहड़ का रूप ले लेती हैं । इस प्रकार के भू - क्षरण को बीहड़ भू - क्षरण कहते हैं ।


(vi) नदी तट भू- क्षरण 
 पानी का बहाव नदियों के किनारों को काटता रहता है और बहाव का नया रास्ता बनाता रहता है । इससे नदियों के किनारे की उपजाऊ भूमि नष्ट हो जाती है ।


(vii) पुलिन भू- क्षरण - 
भू - क्षरण या समुद्रतट भू - क्षरण - समुद्र की तीव्र लहरें किनारे को लगातार काटती रहती हैं । जिससे किनारे के पहाड़ व पेड़ पौधे टूट कर समुद्र में गिरते रहते हैं तथा गाद ( सिल्ट ) के इकट्ठे होने से पुलिन ( बीच ) बन जाते हैं । समुद्र की लहरों व ज्वार धाराओं द्वारा पुलिन क्षरण होता है ।


(viii) हिमनद भू- क्षरण - 
 यह ऊँचे व ठण्डे पहाड़ों पर होती है । जहाँ प्राय : बर्फ जमी रहती है । बड़ी - बड़ी हिम शिलायें अपने साथ चट्टानें व पत्थर बहाती चलती हैं ।


(ix) भूस्खलन भू- क्षरण -
 यह क्षरण पहाड़ों पर होता है । इसमें कमजोर चट्टानें अधिक ढलान के कारण दूर ढह जाती हैं जिससे निचली जगहों के खेत , सड़क व बस्ती आदि दब जाते हैं ।


2. वायु भू- क्षरण - 
जब भूमि का क्षरण वायु द्वारा होता है तो उसे वायु भू - क्षरण कहते हैं । यह कम वर्षा एवं शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में होता है । जहाँ आमतौर पर तेज हवायें चलती हैं वहाँ भूमि पर वनस्पतियों का आवरण नहीं होता है । ऐसी स्थिति में मृदा के छोटे - छोटे कण हवा के साथ अपने स्थान से हटकर कई किलोमीटर दूर उड़कर इकट्ठे हो जाते हैं । कभी - कभी आस पास के खेतों में जमा होकर फसल को बर्बाद कर देते हैं । 



सैंडड्युन
रेतीली भूमि में तेज हवा के कारण कभी - कभी बालू के टीले ( सैंडड्यून ) बन जाते हैं जो वायु वेग के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते हैं । 

विशेष - 
आपने देखा होगा कि जब तेज हवा या आँधी आती है तो प्रायः रेत या मिट्टी के महीन कण ( धूल ) की एक पर्त जमा हो जाती है । कभी आपने सोचा यह कहाँ से आती है ? यह वायु - क्षरण के कारण होता है 


मृदा संरक्षण - 

मृदा , जल एवं वनस्पतियाँ प्रकृति की बहमूल्य देन हैं जिनसे मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं जैसे - भोजन , ईंधन चाश आदि की पर्ति होती है । अत : प्रकति से प्राप्त इस धरोहर की रक्षा करना हम लोगों का परम कर्तव्य है । आपको जानकर आप होगा कि मृदा सतह की एक इंच ऊपरी परत बनाने हेतु प्रकृति को 300 से 1000 वष लगत ह । परन्तु मृदा क्षरण द्वारा यह परत कुछ ही क्षणों या दिनों में बह जाती है । अत : इस प्रकृति प्रदत्त धरोहर को बचाने हेतु उचित मृदा संरक्षण विधियाँ अप आवश्यक है । यदि भूमि पर घास व वनस्पतियाँ नहीं हैं तो भू - क्षरण अधिक होता है जिससे नदी , नालों में मिटटी जमा कर कारण उनकी जल धारण क्षमता घट जाती है और बाढ़ का कारण बनती है । मृदा कटाव को रोकने की प्रक्रिया को ही मटा कहते हैं ।

हमारे देश की कल वार्षिक वर्षा का एक तिहाई पानी बहकर नदी नालों में चला जाता है । मृदा संरक्षण वह विधि है जिसमें मृदा उपयोग क्षमता का पूरा - पूरा लाभ उठाते हुए मृदा को क्षरण से बचाया जाता है । 

विशेष . अथर्ववेद में भी भूमि संरक्षण का वर्णन है । जो निम्न है 
1 . हम सब इस पृथ्वी का सभी संसाधनो द्वारा बचाव ( संरक्षण ) करें उस मदा का जो हमारे लिए फसल , फल , फूल व वृक्ष आदि पैदा करती है । ( अथर्ववेद 12 1 : 27 ) 
2 . भूमि हमारी माता है , मै उसका पुत्र हूँ , जल हमारा पिता है । परमात्मा हमें इस ईश्वरीय देन को भरपूर मात्रा में दे । ( अथर्ववेद 12 : 1 : 21 ) 


मृदा संरक्षण के उपाय - 


 मृदा संरक्षण हेतु निम्नलिखित विधियों का प्रयोग करते हैं - 
1 . खेत को समतल एवं मेंड़बन्दी करना । 
2 . ढाल के विपरीत खेती करना । 
3 . पट्टियों में खेती करना । 
4 . समोच्चय ( कन्टूर ) विधि से खेती करना । 
5 . रोक बाँध ( चेक डैम ) बनाना 
6 . सीढ़ीदार ( वेदिका ) खेती करना 
7 . वायु रोधी पट्टियां बनाना । 
8 . घास एवं वृक्षारोपण करना । 


1. खेत को समतल एवम मेंडबन्दी करना- 
 इसके अन्तर्गत खेत को समतल करके खेत के चारों तरफ का मेंडबन्दी कर देते हैं जिससे पानी बहकर खेत के बाहर नहीं जाता है ।
गांव की मिट्टीगांव में , गाँव का पानीगाँव में खेत की मिट्टीखेत में , खेत का पानी खेत में ।


2. ढाल के विपरीत खेती करना -
मृदा संरक्षण हेतु कृषि कार्य जैसे - जुताई , बुवाई सदैव ढाल . के विपरीत दिशा में करते हैं जिससे पानी सक सके ।


3. पट्टियों में खेती करना -
इस विधि में अधिक आच्छादित फसलों जैसे मूंग , उर्द , मूंगफली की एक पट्टी बोने के बाद दूसरी पट्टी में कम आच्छादित फसलें जैसे मक्का , बाजरा , ज्वार आदि की बुवाई करते हैं । 


4. कंट्रल विधि से खेती करना - 
ढालू भूमियों में समोच्चय रेखा के समानान्तर फसल उगाते हैं जिससे वर्षा जल रुकता है तथा मिट्टी कटने से बच जाती है ।  


5. रोक बाँध बनाना ( चेक डैम )
 खेत से बहते जल को रोकने हेतु झाड़ी , पत्थर या पक्की संरचना बना देते हैं , जिससे पानी को रोककर भू - क्षरण कम करते हैं । 


6. सीढ़ीदार खेती
अधिक ढालू एवं पहाड़ों पर ढाल के विपरीत सीढ़ीनुमा संरचना बनाकर खेती करते हैं तथा मिट्टी कटाव को रोकते हैं ।


7. वायुरोधी पट्टिया बनाना
शुष्क एवं रेतीली मृदा में हवा द्वारा भूमि कटाव को रोकने हेतु खेत के किनारे वायु की विपरीत दिशा में कई पंक्तियों में वृक्षों का रोपण कर देते हैं जिससे वायु का मृदा एवं फसलों पर प्रभाव कम पड़ता है । 


8. घास एवम वृक्षारोपण करना 
खेती के योग्य भूमि को भूमि कटाव से बचाने हेतु धास एवं वृक्ष का रोपण करते हैं जिससे पानी धीरे - धीरे बहता है तथा भू - क्षरण कम होता है ।