मृदा विन्यास , इकाई 1 ( कक्षा 7, कृषि विज्ञान )

इकाई - 1 मृदा विन्यास

मृदा विन्यास का अर्थ 
मृदा विन्यास के प्रकार 
रन्यावकाश का कृषि में महत्त्व 
मृदा जल 
मृदा जल के प्रकार 
मृदा जल का भूमि में संरक्षण 
वर्षा के जल को नष्ट होने से बचाने के 


उपाय मृदा विन्यास का अर्थ 


हम लोग जान चुके हैं कि मृदा , खनिजों एवं चट्टानों के टूटने - फूटने एवं उनके बारीक कणों से बनी है । इन कणों को बालू , सिल्ट एवं मृत्तिका कहते हैं । ये कण प्राय : आकार में गोलाकार होते हैं एवं मृदा में विभिन्न प्रकार से वितरित और सजे हुए होते हैं । " मृदा कणों के इस प्रकार के वितरण या सजावट को मृदा विन्यास या मृदा संरचना कहते हैं ।


मृदा विन्यास का तत्यपर्य 


मृदा कण समूहों से है अर्थात मृदा कण एक दूसरे से किस प्रकार मिले हुए होते हैं । मृदा कणों के आकार की तरह मृदा विन्यास भी मृदा में जल , वायु एवं पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों के संचार को प्रभावित करता है जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है । किसान खेत में जो भी जुताई , निराई , गुड़ाई इत्यादि कार्य करता है , उसका सम्बन्ध मृदा विन्यास से होता है अर्थात् भू - परिष्करण क्रियायें मृदा विन्यास को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं ।


मृदा विन्यास का बीजो के अंकुरण पर प्रभाव

जुताई , गुड़ाई , निराई , पाटा चलाना आदि क्रियाओं द्वारा मृदा कण एक दूसरे से अलग एवं ढीले हो जाते हैं और उनके गठन एवं समूहों में परिवर्तन आ जाता है । भू - परिष्करण क्रियाओं द्वारा मृदा कणाकार ( टेक्स्चर ) बहुत ही कम प्रभावित होता है जो भी परिवर्तन होता है वह मृदा विन्यास या गठन में होता है , जिससे मृदा उर्वरता एवं फसल उत्पादन बहुत अधिक प्रभावित होता है । 

विद्यालय के प्रांगण में 1-1 वर्ग मीटर की दो क्यारियों का चयन करें । एक क्यारी की गुड़ाई कर मिट्टी को भरभुरी करें और दूसरी क्यारी की गुड़ाई ना करें । अब दोनों क्यारियों में अनाज के 100 - 100 बीज बो कर हल्का पानी डाल दें । 7 - 10 दिन के अन्दर आप देखेंगे कि भुरभुरी की हुई क्यारी में लगभीग सभी बीज उगे हुए है । बिना गुड़ाई वाली क्यारी में तुलनात्मक रूप से कम बीज उगे हैं । ऐसा क्यों ? जैसा कि हम लोग भली भाँति जानते हैं कि यदि किसी खेत को वर्ष भर परती छोड़ दिया जाये तो उसकी मिट्टी कठोर हो जाती है और खरपतवार की मात्रा बढ़ जाती है । उस खेत में जुलाई एवं गुड़ाई कठिनाई से होती है । इस प्रकार की मिट्टी में बुवाई करने पर बीजों का जमाव ( अंकुरण ) एवं वृद्धि कम होती है । इसका मुख्य कारण मृदा विन्यास निम्न स्तर का होना है । गुड़ाई किए हुए खेत से लिए गये नमूने में अंकुरण अच्छा होता है क्योंकि उसकी मिट्टी ढीली एवं भुरभुरी होती है । मृदा कणों के बीच खाली स्थान में जल , वायु एवं आवश्यक पोषक तत्त्व उपलब्ध रहते हैं । बीजों के अंकुरण एवं पौधों की वृद्धि के लिए अनेक अनुकूल दशाओं की आवश्यकता होती है जो अच्छे मृदा विन्यास के होने पर ही सम्भव होता है।


विशेष -     मृदा विन्यास प्रभावित होता है 
भू - परिष्करण ( जुताई , गुड़ाई , निराई आदि ) से , 
कार्बनिक खादों के प्रयोग से , 
चूना , जिप्सम एवं अन्य भूमि - सुधारकों के प्रयोग से , 
फसल - चक्र द्वारा , 
मिट्टी की दशा एवं किस्म से , 
उर्वरकों के प्रयोग तथा जल निकास से ।

मृदा विन्यास के प्रकार 


आप सुबह - सुबह अपने स्कूल में प्रार्थना करते समय पंक्तियों में सीधे खड़े होते हैं । यदि सभी बच्चे एक साथ पंक्ति में सटकर खड़े हो जाये तो एक स्तम्भाकार आकृति बन जायेगी । इस आकृति में एक बच्चा अपने चारों तरफ चार बच्चों को छूता है । इसी प्रकार यदि आप तिरछी लाइन बनाकर आपस में सटकर खड़े हो जायें तो एक बच्चा अपने चारों तरफ छ : बच्चों को छूता है । इस प्रकार एक तिर्यक आकृति बन जाती है । यदि आप सभी कई झुण्ड बनाकर गोल आकृति में खड़े हो जायें और एक झुण्ड दूसरे झुण्ड को छूते हुए सीधी लाइन बना लें तो एक झुण्ड अपने चारों तरफ चार झुण्डों को छुएगा तथा एक और आकृति बन जायेगी । 

मृदा में पाये जाने वाले कण ( बालू , सिल्ट एवं मृत्तिका ) , जो आकार में गोल होते हैं , चार प्रकार से वितरित एवं सजे होते हैं ।

 1 . स्तम्भी विन्यास - इस प्रकार के विन्यास में मृदा कण आपस में एक दूसरे से चार स्थानों ( बिन्दुओं ) पर मिलते हैं जिसके कारण मृदा कणों के बीच बहुत अधिक जगह खाली रहती है जिसे रन्ध्रावकाश कहते हैं । रन्ध्रावकाश का आयतन लगभग 50 प्रतिशत होता है । इसका अनुपात कणों के छोटे या बड़े होने पर निर्भर करता है । इस प्रकार के विन्यास वाली मिट्टी अत्यन्त भुरभरी एवं मुलायम होती है , जिसमें जल एवं वायु आसानी से प्रवेश करती है । मृदा में लाभकारी जीवाणुओं की क्रियाशीलता अधिक होती है । यह मृदा उपजाऊ एवं खेती के लिए उत्तम होती है ।

2 . तिर्यक ( तिरछा ) विन्यास - इस प्रकार के विन्यास में प्रत्येक कण एक दूसरे को छ : स्थानों पर छूता है तथा तिरछी पंक्तियों में व्यवस्थित होता है जिससे कणों के बीच रन्ध्रावकाश कम हो जाता है । इसलिए जल एवं वायु का संचार बहुत कम होता है जिसके कारण फसलों एवं पौधों की जड़ों की वृद्धि अच्छी नहीं होती है फलत : पैदावार कम होती है । 

3 . संहत ( सघत ) विन्यास - सघन विन्यास में मृदा के छोटे छोटे कण तिरछी रचना के बीच में आ जाते हैं । इस प्रकार की मिट्टी में जल एवं वायु का प्रवेश ( संचार ) बहुत ही कठिनाई से होता है । 

4 . दानेदार ( कणीय ) विन्यास - इस विन्यास में मृदा के सूक्ष्म कण आपस में मिलकर एक झण्ड बनाते हैं और इस झुण्ड की एक इकाई अपने पास की चार इकाइयों ( झुण्डों ) को छूती है । यह विन्यास सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि छोटे छोटे कणों के बीच ( एक झुण्ड में ) रिक्त स्थान तो होता ही है साथ ही साथ बड़े - बड़े कणों ( झुण्डों ) के बीच भी रिक्त स्थान होता है चिकनी दोमट एवं दोमट मृदाओं में इस प्रकार का विन्यास अधिक पाया जाता है । 

रन्धावकाश का महत्त्व - मृदा में ठोस पदार्थों से रहित जो खाली स्थान होता है उसे मृदा रन्ध्र या रन्ध्रावकाश कहते हैं । रन्ध्रावकाश मुख्यतया मिट्टी के कणों के आकार पर निर्भर करता है । मोटे कणों वाली मृदा में रन्ध्रावकाश कम तथा बारीक या छोटे कणों वाली मृदा में रन्ध्रावकाश अधिक होता है । आइये इसका अवलोकन करें ।

 क्रिया कलाप - 1 
* दो समान आकार के बीकर लीजिए । 
* एक बीकर में आधे भाग तक बालू भर दीजिए ।
* दूसरे बीकर में आधे भाग तक चिकनी मिट्टी भर दीजिए । 
* पानी के आयतन को माप कर दोनो बीकरों में इतना डालिए कि ऊपरी सतह तक आ जाये ।
* क्या आप बता सकते हैं कि किस बीकर में पानी अधिक भरा गया ? 

दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि चिकनी मिट्टी वाले बीकर में अधिक पानी भरा गया जबकि बालू वाले बीकर में कम । इससे सिद्ध होता है कि बड़े कणों वाली मिट्टी ( बलई ) में कम तथा छोटे कणों वाली मिट्टी ( चिकनी ) में अधिक रन्ध्रावकाश होता है । आपने खेतों में पौधों को सूखते हुए देखा होगा , ऐसा क्यों होता है ? जब पौधों को समय पर पानी नहीं मिलता तो वे सूखने लगते हैं । रन्ध्रावकाश पर्याप्त होने पर जल , वायु एवं पोषक तत्त्व मृदा में उपलब्ध रहते हैं । इसके विपरीत रन्ध्रावकाश कम होने पर पौधों का विकास कम होता है अर्थात मिट्टी में रन्ध्रावकाश होना अच्छी पैदावार के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है क्योंकि 

1 . रन्ध्रावकाश पौधों को समुचित जल , वायु एवं पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने में सहायता करता है । 
2 . मृदा के लाभदायक जीवों की वृद्धि में सहायक होता है । 
3 . पौधों की बढ़वार के लिए आवश्यक घुलनशील तत्त्वों की वृद्धि में सहायता करता है । 
4 . जड़ों के समुचित विकास में सहयोग करता है । 


मृदा जल


 प्रकृति में पाया जाने वाला जल रंगहीन , गंधहीन और पारदर्शी होता है । हम लोग जितने हरे - भरे पेड़ - पौधे एवं लहलहाती फसलें देखते हैं , पानी न मिलने पर सूख जाती हैं । इसी तरह मनुष्यों एवं पशुओं का जीवन भी पानी के बिना सम्भव नहीं है । इससे यह स्पष्ट होता है कि जल का पेड़ - पौधों , पशुओं एवं हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है । इसीलिए कहा गया है कि " जल ही जीवन है " । 

प्रकृति में जल , पेड़ - पौधों , जीव - जन्तुओं एवं वायुमण्डल में निरन्तर ठोस , द्रव एवं गैस के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रवाहित होता रहता है । क्या आप बता सकते हैं कि मृदा जल क्या है ? मिट्टी या मृदा में पाये जाने वाले जल को ही मृदा जल कहते हैं । जल पौधों का एक मुख्य भाग है । जल एक अच्छा घोलक है । जो पौधों के आवश्यक पोषक तत्त्वों के लिए एक वाहक के रूप में कार्य करता है । सूक्ष्म जीवों एवं पेड़ - पौधों की वृद्धि , जैव पदार्थ का सड़ना तथा सभी रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं के लिए जल अत्यन्त आवश्यक है ।


विशेष - प्रकृति में जल कभी नष्ट नहीं होता है । यह एक रूप से दूसरे रूप में बदल जाता है । वास्तव में महासागर जल का विशाल एवं असीमित भण्डार है । वहाँ से जल जल - वाष्प , बादल , वर्षा एवं हिमपात के रूप में पृथ्वी को प्राप्त होता है । जल के इस प्रकार ठोस , द्रव एवं गैसीय अवस्था में परिवर्तन को जल - चक्र कहते हैं और जल चक्र के अध्ययन को जल विज्ञान ( हाइड्रोलोजी ) कहते हैं । "



मृदा जल के प्रकार 


मृदा जल मुख्य रूप से तीन रूपों में पाया जाता है - 

1 . गुरुत्वीय जल ( ग्रेवीटेशनल वाटर ) 
2 . केशिका जल ( कैपिलरी वाटर ) 
3 . आर्द्रताग्राही जल ( हाइग्रोस्कोपिक वाटर ) 


1. गुरुत्वीय जल    


क्रिया कलाप 2 
* जैविक पदार्थ युक्त मिट्टी से भरा गमला लीजिये । 
* गमले में नीचे जल निकालने के लिए एक छेद हो । 
* गमले को ऊपर तक जल से भर दें । 

थोड़ी देर बाद आप देखेंगे कि गमले का पूरा जल छेद से बाहर निकल गया । क्या आप बता सकते हैं कि यह जल बाहर क्यों निकल गया ?

 मिट्टी में जो रन्ध्रावकाश होता है उसमें पानी भरने के बाद अतिरिक्त जल को रोकने की शक्ति मृदा में नहीं होती जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण नीचे बह जाता है अत : पौधों के लिए अप्राप्य होता है । उसे गुरुत्वीय जल कहते हैं । इस प्रकार वर्षा तथा सिंचाई के बाद जो जल मृदा के नीचे चला जाता है और मिट्टी के कणों के बीच रन्ध्रावकाश में नहीं रुक पाता उसे गुरुत्वीय जल या स्वतंत्र जल कहते हैं । 


2. कोशिका जल 

जैसा कि आपने गमले में पानी का अवलोकन किया । गमले में जितना पानी रूक जाता है वह कणों के बीच रिक्त स्थान में रुका होता है । यह जल केशिका नलिकाओं में भरा रहता है जो नीचे नहीं जा पाता है । केशिका नलिकायें कणों के बीच बहुत पतली - पतली नलिकायें होती हैं जो प्राय : ऊपर से नीचे की ओर या मृदा की पर्त के समानान्तर भी होती हैं । गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध पर्याप्त जल मिट्टी के रन्ध्रावकारा में रुका रहता है जिसे केशिका या केशीय जल कहते हैं । इस प्रकार के जल में पौधों के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व घुले होते हैं । यह जल विलयन के रूप में पौधों को सुगमता से प्राप्त हो जाता है अत : पौधों के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है । 

3 . आर्द्रताग्राही जल
 क्रिया कलाप 3

* एक कपड़ा लेकर उसे पानी में डुबाए । 
* कपड़े को निकाल कर अच्छी प्रकार निचोड़ लें और धूप में सूखने के लिए फैलाए । 
* थोड़ी देर ( आधे घंटे ) बाद कपड़े को उठाकर देखने पर पता चलता है कि कपड़ा पूरी तरह सूखा नहीं है फिर भी आप कपड़े को पुनः निचोड़ कर देखें तो जल नहीं निकलता है । 

क्या आप बता सकते हैं कि जल क्यों नहीं निकलता ? यह जल कपड़ों में धागों के बीच चिपका ( जकड़ा ) रहता है । इसी तरह मिट्टी में कुछ जल अवश्य रहता हैं लेकिन वह मृदा कणों के मध्य इतनी मजबूती से एक पतली परत के रूप में जकड़ा रहता है कि पौधों को प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार के जल को आर्द्रताग्राही जल कहते हैं । अत : सिंचाई द्वारा जो जल फसलों को दिया जाता है उसका बहुत कम भाग पौधों को प्राप्त होता है । अधिकांश भाग वाष्पन या रिसाव द्वारा बेकार चला जाता है या गुरुत्वीय जल एवं आर्द्रताग्राही जल के रूप में पौधों को अप्राप्य होता है । 


मृदा जल का भूमि में संरक्षण

फसलों की अच्छी पैदावार के लिए मृदा में जल संरक्षण का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि पौधों की वृद्धि के लिए जल का निरन्तर उपलब्ध रहना आवश्यक होता है । मृदा में जल संरक्षण की अनेक विधियाँ है । 

1 . जताई, गडाई एवं निराई करके - खेतों की जुताई एवं निराई - गुड़ाई करने से मृदा में बनी केशीय नलिकायें टट जाती हैं एवं नीचे एक ऐसी पर्त बन जाती है जिससे नीचे का जल भूमि के ऊपरी सतह तक नहीं आ पाता है । इस प्रकार जल मृदा में सुरक्षित रहता है ।

 2 . जताई के बाद भारी घाटा लगाना - पाटा लगाने से भूमि के ऊपरी भाग में एक कड़ी परत बन जाती है । जिससे मदा जल की हानि वाष्य के रूप में नहीं हो पाती है ।

 3 . जैविक खादों का अधिकाधिक प्रयोग - खेतों में जैविक खादों का अधिक प्रयोग करने से मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ जाती है । जिससे मृदा में पानी अधिक रुकता है । इस प्रकार जिस मिट्टी में जैविक पदार्थ पाटा लगाना अधिक होगा उसमें जल - धारण क्षमता भी उतनी ही अधिक होगी । 

4 . कृत्रिम बिछावन या पलवार ( मल्चिंग ) द्वारा - मल्चिंग का अर्थ है मृदा के ऊपरी सतह को ढकना या मृदा केशिका नलिकाओं को तोड़कर मल्च बनाना । मल्चिंग का प्रयोग करने से सूर्य का प्रकाश सीधे भूमि पर नहीं पड़ता जिससे वाष्पोत्सर्जन कम होता है और जल का संरक्षण हो जाता है । मल्चिंग के रूप में धान का पुआल , ज्वार , बाजरा , अरहर या अन्य फसलों के डण्ठल आदि प्रयोग में लाये जाते हैं । 

5 . फसल चक्र द्वारा - पतली एवं कम चौड़ी पत्ती वाली फसल उगाने से वाष्पन कम होता है । फसल चक्र में ऐसी फसलों का भी प्रयोग करना चाहिये जिन्हें कम पानी की आवश्यकता होती है तथा उनकी जड़ें कम फैलती हैं जैसे - सनई , मूंग , चना एवं मटर आदि ।


वर्षा के जल को नष्ट होने से बचाने के उपाय
  

घनघोर वर्षा के बाद भी भूमि पर पानी नहीं ठहरता है । आखिर वह जल कहाँ चला जाता है ? वास्तव में जब वर्षा होती है तो जल का अधिकांश भाग बहकर दूर नदी , नालों , तालाबों , पोखरों में चला जाता है । कुछ ही भाग रिसकर मृदा के नीचे जाता है जिसका उपयोग वनस्पतियों द्वारा स्वयं कर लिया जाता है । इसलिए वर्षा के जल को नष्ट होने से बचाने के जो उपाय किये जाते हैं निम्नलिखित हैं-  


1. खेत को समतल एवम मेंडबन्दी करना -

खेत को समतल करके उसके चारो ओर ऊँची - ऊँची मेंड बनाकर वर्षा के जल को बाहर जाने से रोकते हैं तथा जल निकास के लिए पानी को धीरे - धीरे खेत से बाहर निकालते हैं । 


2. खेतो की गहरी जुताई करना

गर्मी के दिनों में खेतों की गहरी जुताई करने से भूमि में जल का अवशोषण अधिक होता है और मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ने से मृदा में जल अधिक रुकता है जिससे वर्षा का जल बहने से कम नष्ट होता हैं । 


3. खेत के ढाल के विपरीत जुताई करना -


 ढालू खेत में ढाल के विपरीत जुताई करने से वर्षा का जल तेजी से बहने नहीं पाता और उसे भूमि में रुकने का समय अधिक मिलता है , जिससे मृदा जल का हास कम होता है । 


4. छोटे-छोटे बांधो का निर्माण

ढालू भूमि पर वर्षा के जल को रोकने के लिए निचले भागों में छोटे - छोटे बन्धे बनाकर वर्षा जल को बहने से रोका जाता है । इन बाँधों में रुके हुए जल का सिंचाई के रूप में उपयोग करके फसल उत्पादन किया जाता 


5 . वृक्षारोपण - 


अधिक से अधिक वृक्ष एवं घास लगाकर वर्षा के जल को तीव्र गति से बहने से रोका जा सकता है । इसके अतिरिक्त वनों में , वृक्षों के बीच खाली जगह में तथा कम प्रकाश में उगने वाली फसलों को उगाकर भी वर्षा जल को नष्ट होने से बचाया जा सकता है । 


6. झीलों, तालाबो एवं पोखरों की सफाई एवं पर्याप्त गहराई बनाये रखना - 


 वर्षा होने से पहले जलाशयों में उगे हुए खरपतवारों तथा निचली सतह पर जमी मिट्टी को बाहर निकाल देते हैं जिससे वर्षा का जल अधिक से अधिक एकत्र हो सके । आवश्यकता पड़ने पर इसी जल से खेतों की सिंचाई करते हैं । इस संदर्भ में निम्नलिखित कहावत पूर्णतः सत्य है । 
Table - 

" वर्षा के जल का संचय, भरे रहें ताल ।
 न रहे सूखा न पड़े अकाल "।।



7. छत जल ( रूफ- टाफ जल ) संचय -


कम वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा जल को नष्ट होने से बचाने हेतु यह एक ऐसी विधि है जिसमें मकानों की छतों से गिरने वाले पानी को मकान के पास ही गड्ढे बनाकर एकत्र कर लेते हैं । जिसका उपयोग घरेलू कार्य एवं बागवानी हेतु करते हैं ।