हमारे पर्यावरण का परिचय BEd की परीक्षा के लिए

हमारे पर्यावरण का परिचय
 ( Introduction of Our Environment ) 

पर्यावरण : संक्षिप्त परिचय ( Environment : A Brief Introduction ) 

पर्यावरण इस सृष्टि का मूल जीवन तत्त्व है । इसकी समद्धि संसार की समृद्धि है । पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी तत्व , चर - अचर एवं जीव - निर्जीव पर्यावरण की ही देन हैं । पर्यावरण दो शब्दों ' परि ' एवं ' आवरण ' से बना है । परि का तात्पर्य है , चारों तरफ अ ' आवरण ' का अर्थ है , घेरा , अर्थात् पृथ्वी के चारों तरफ के घेरे को पर्यावरण कहते हैं । पर्यावरण ' शब्द समस्त परिस्थितियों की सम्पर्णता है जो जीवों के जीवन को प्रभावित करती हैं । 
पर्यावरण का तात्पर्य उस परिवेश से है , जो जीवमण्डल को चारों तरफ से घेरे हुए है । इसके अन्तर्गत वायुमण्डल , स्थलमण्डल तथा जलमण्डल के भौतिक , रासायनिक एवं सभी तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है । प्रकृति के दो तत्त्व वंशानक्रम तथा पर्यावरण जीवों एवं उनकी क्रियायों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं । इसलिए पर्यावरण को समझने के लिए वायुमण्डल , स्थलमण्डल , जलमण्डल एवं जीवमण्डल को समझना आवश्यक हो जाता है । किसी जीव या उसके अजैविक एवं जैविक परिवेश के बीच अन्तक्रिया केवल परिवेश या सूक्ष्म पर्यावरण को ही नहीं वरन् जीवों के क्रियाकलापों को भी प्रस्तुत करती है ।

 पर्यावरण में ही दोनों तत्त्व जैविक और अजैविक पाए जाते हैं । जैविक तत्त्वों में पेड़ - पौधे , पशु - पक्षी , जीव - जन्तु और मानव आते हैं , जबकि अजैविक तत्त्वों में वायु , जल , भूमि , मिट्टी आदि तत्त्व आते हैं । जैविक तथा अजैविक तत्त्व दोनों साथ - साथ क्रियाशील रहते हैं । ये आपस में निर्भर रहकर जीवन का संचार करते हैं । पर्यावरण के अन्तर्गत सभी प्राणी मानव के साथ एक ही . भौगोलिक परिवेश में बराबर का हिस्सा बँटाते हैं , परन्तु इसमें मानव अपनी सर्वोपरि व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 

आज जो प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग व विनाश हो रहा है उसे अब मूक दर्शक बनकर नहीं देखा जा सकता है । पश्चिमी देशों के लिए पर्यावरण विकास का अर्थ वहाँ के जीवन - यापन स्तर को । ऊपर उठाना है किन्तु भारत के लिए पर्यावरण का अर्थ यहाँ के लोगों के जीवन - मृत्यु का प्रश्न हैं । पर्यावरण शिक्षा का सही अर्थ व्यक्तियों के जीवित रहने का ज्ञान है । हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या गांवों में निवास करती है । इनकी निर्भरता पूर्णतया प्राकृतिक संसाधनों पर है । अन्न का उत्पादन मुख्यतया पशुओं की भागीदारी से किया जाता है । इन जानवरों का चारा प्रकृति से प्राप्त होता है । ईधन , इमारती लकड़ी , वायु , जल तथा मिट्टी आदि सभी प्राकृतिक उत्पाद हैं । इनकी उपलब्धता एवं आवश्यकताओं कमध्य एक प्राकृतिक साम्य है । इस साम्यावस्था के अन्तर्गत हमारे संसाधनों की मात्रा पर्याप्त है । महात्मा गाँधी कहा करते थे — “ प्रकृति में हर एक की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन हैं किन्तु लालच पूरा करने के लिए नहीं । 

" हमारी लालची प्रवृति ने प्राकतिक संसाधनों को इस कदर झिंझोड़ डाला है कि विश्व का कोई क्षत्र एसा हो जहां प्राकृतिक आपदायें नहीं आयी हैं । आज धरती के कछ विशेष क्षेत्रों में जनसंख्या का । दबाव और अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है । कृषि - भूमि शहरों में और वन - भूमि कृषि - भूमि में बदलती जा रही है । कहीं - कहीं आर्थिक समद्धि के लिये खनन ने प्रकृति को अत्यधिक विध्वंसित कर दिया है । मनुष्य की इस शोषण प्रवति और विनाश की नीति के खिलाफ प्रकति भी मनुष्य से बदला लेने । लगी है । प्रति वर्ष जहाँ मृत्य दर व रोगियों की संख्या घटाने के प्रयास किये हैं वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक आपदाओं जैसे — बाढ़ , सूखा , अतिवृष्टि , महामारी , भूस्खलन , भूचाल आदि अनेक आपदाओं से स्थिति और अधिक बिगड़ती जा रही है । ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन बढ़ता जा रहा है । इसका मख्य कारण ग्रामीण निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर से विश्वास उठ गया है । ग्रामीण निवासी अब यह सोचने लग गये हैं कि उनकी दैनिक आवश्यकतायें पूरी करने का दम ग्रामीण पारिस्थितिकीय तंत्र अथवा ग्रामीण तन्त्र में नहीं है । 

पर्यावरणीय विज्ञान
 ( Environmental Science ) 

पर्यावरण के सुव्यवस्थित अध्ययन को पर्यावरण विज्ञान कहते हैं । वनस्पति जगत व प्राणि । जगत एक समन्वित समुदाय अंग है । 
पर्यावरणीय ज्ञान के लिए प्रारम्भ में पारिस्थितिकी या इकोलॉजी शब्द का उपयोग किया जाता था जो सर्वप्रथम जर्मन जीव वैज्ञानिक अर्नेस्ट हिकल द्वारा सन् 1869 में पर्यावरणीय ज्ञान के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया गया था । यह ' इकोलॉजी ' शब्द ग्रीक शब्दकोश का ' आइकोल ' शब्द है जिसका अर्थ होता है ' गृह ' अथवा ' वास पान ' अर्थात् जहाँ जीव निवास करते हैं । पर्यावरण विज्ञान की विभिन्न परिभाषाओं को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है

( i ) पर्यावरण विज्ञान हमारा पर्यावरण एवं इसमें हमारा उचित स्थान का व्यवस्थित अध्ययन है । 
( ii ) जीवों तथा उनके पर्यावरण के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन का विज्ञान है ।  
( iii ) जीवित तंवों तथा पर्यावरण के बीच सम्बन्धों का अध्ययन है । 
( iv ) जीवों अथवा जीव समूह के अपने पर्यावरण से सम्बन्धों का अध्ययन है । 
( v ) समस्त जीवों के समस्त पर्यावरणों के साथ सभी सम्बन्धों का अध्ययन है । 
( vi ) जीवित जीवों के आपसी अन्तःजातीय व अन्तर्जातीय सम्बन्धों एवं उनके भौतिक पर्यावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन है । 
( vii ) जीवों तथा उनके पर्यावरण के बीच सम्बन्धों की समग्रता का अध्ययन है । 
( viii ) वनस्पतियों एवं प्राणियों का आपने चारों तरफ के पर्यावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन है । 
( ix ) प्रकृति की संरचना एवं कार्यों का अध्ययन है । 

पर्यावरण का आशय एवं परिभाषा 
( Meaning and Definition of Environment ) 

मनष्य के चारों ओर एक ऐसा पर्यावरण है जो मानव की बुद्धि और प्रक्रियायों के द्वारा उत्पन्न । नहीं हुआ है , अपित यह पूर्णरूप से प्राकृतिक परिस्थितियों की देन है । प्रकृति द्वारा बनाये गये इस तरह के पर्यावरण को प्राकृतिक अथवा भौगोलिक पर्यावरण कहते हैं । 

भौगोलिक पर्यावरण में वे सब परिस्थितियों सम्मिलित होती हैं जो प्रकृति मानव को प्रदान करती है । जैसे - पृथ्वी , ऋतये , फल फूल , वृक्ष , नदी , पर्वत , सागर आदि । भौगोलिक पर्यावरण से तात्पर्य ऐसी ऐहिक दशाओं है से जिनका अस्तित्व मनष्य के कार्यों से । स्वतन्त्र है , जो मानव रचित नहीं है और बिना मनुष्य के अस्तित्व और कार्यों से प्रभावित हए स्वतः परिवर्तित होती है । 

कुछ वैज्ञानिकों ने पर्यावरण ( Environment ) शब्द की अपेक्षा habitat शब्द या milieu शब्द का प्रयोग किया है जिसका अभिप्राय भी समस्त पारिस्थितिकी अथवा परिवत्ति ( latset of surrounding ) से है । 

पर्यावरण Environment शब्द फ्रेंच भाषा के Environer शब्द से बना है जिसका अभिप्राय समस्त परिस्थितिकी अथवा परिवृत्ति होता है । इसके अन्तर्गत सभी स्थितियाँ , परिस्थितिया । दशायें तथा प्रभाव जो कि जैव अथचा जैविकीय समह पर प्रभाव डाल रहा है , सम्मिलित है ।
यदि हम भारतीय आधार पर पर्यावरण का आर्थ एवं पर्यावरण घटकों के विषय म जानता भारतीय दर्शन म आधुनिक पर्यावरण के स्थान पर ' प्रकृति तथा सचि ' जैसे शब्दों का उपयोग किया गया । प्रकृति अथवा सृष्टि जस शब्दों की व्यापकता वैज्ञानिक आधार पर आधनिक राज्य अथवा । पश्चिमी विचार पर्यावरण की अपेक्षा कहीं अधिक है । हमारे धर्म ग्रन्थों में जल , वायु , आग्न , वृक्षा जीव तथा भमि की पूजा पर जा दिया गया है अर्थात प्रकति ने इन सभी घटकों की महत्ता का स्वीकार किया गया है । भारतीय धर्मग्रन्थों में उल्लिखित प्रक्रति शब्द यह विचार सामने रखता है कि । वह किसी में समाहित नहीं ह , वरन् उसके सभी सदस्य घटक परिवार में समाहित हैं । परिवार का जति उसके पर्यावरण में भी विभिन्न घटकों के बीच संसर्ग अवश्यंभावी है । अनेक बार यह ससग । पर्यावरण को विषम परिस्थितियों की ओर ले जाता है । कई बार इस तरह की विषम परिस्थितिया । निर्जीव घटकों को कुछ प्राकृतिक घटनाओं के कारण उत्पन्न हो जाती हैं । इन प्रतिकल परिस्थितियों से बचाव हेतु परस्पर सामंजस्य की प्रक्रिया पर्यावरण को स्वतः सुधार सामग्री की ओर ले जाती हैं । 

पर्यावरण वह परिवृत्ति है जो मानव के चौतरफा घेरे हुए है तथा उसके जीवन व क्रियाओं पर प्रभाव डालती है । इस परिवृत्ति अथवा परिस्थिति से मनुष्य से बाहर के समस्त तथ्य वस्तुयें , स्थितियाँ तथा दशायें सम्मिलित होती हैं जिनकी क्रियाएं मनुष्य के जीवन विकास पर प्रभाव डालती हैं । 

फिटिंग के अनुसार - " जीवों के पारिस्थितिकी कारकों का योग पर्यावरण है । अर्थात् जीवन की पारिस्थितिकी के समस्त तथ्य मिलकर वातावरण कहलाते है । " जर्मन वैज्ञानिक फिटिंग ने यह परिभाषा 722 में दी है । 

सोरोकिन के अनुसार - " भौगोलिक पर्यावरण का तात्पर्य ऐसी दशाओं और घटनाओं से है जिनका अस्तित्व मनुष्य के कार्यों से स्वतन्त्र है , जो मानव रचित नहीं है और बिना मनुष्य के अस्तित्व और कार्यों से प्रभावित हुए स्वतः परिवर्तित होती है । " 

भूगोल परिभाषा कोश के अनुसार - " चारों ओर की उन बाहरी दशाओं का सम्पूर्ण योग जिसके अन्दर एक जीव अथवा समुदाय रहता है या कोई वस्तु उपस्थित रहती है । " 
टी . एन खुशु के अनुसार - " उन सब दशाओं का योग जो कि जीवधारियों के जीवन और विकास को प्रभावित करता हो , पर्यावरण है । " 

टौंसले के अनुसार - " प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग जिसमें जीव रहते हैं , वातावरण कहलाता है । " 

हर्सकोविट्स ( Herskovits ) के अनुसार - “ वातावरण उन सभी बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग हैं जो प्राणी के जीवन और विकास पर प्रभाव डालते हैं । " । 

मैंकाइवर के अनुसार - " पृथ्वी का धरातल और उसकी सारी प्राकृतिक दशायें - प्राकृतिक संसाधन , भूमि , जल , पर्वत , मैदान , खनिज पदार्थ , पौधे , पशु तथा सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियाँ जो पृथ्वा पर विद्यमान होकर मानव जीवन को प्रभावित करती हैं , भौगोलिक पर्यावरण के अन्तर्गत आती है।

पर्यावरण विविध अन्तःनिर्भर घटकों सजीव एवं निर्जीव के मध्य सामंजस्य एवं पूर्णतः की अवधारणा है । पर्यावरण का निर्जीव घटक पाँच निम्न उपघटकों में विभाजित है - ऊर्जा , पानी , मिट्टी , हवा तथा अंतरिक्ष । सजीवों के निम्न उपघटक हैं जो न तो उत्पन्न किये जा सकते हैं और न हा समाप्त किय जा सकते हैं । इनको एक दसरे के रूप में रूपान्तरित किया जा सकता है । इस तरफ सजाव आर निजाव में कोई मलभत अन्तर नहीं है । एक स्वरूप में कोई उत्पादन है तो वह दसर रूप में उत्पाद भी हो सकता है । यही प्रकृति भी है ।

पर्यावरण की विशेषताएँ 

पर्यावरण की निम्नलिखित विशेषताएं है-
 ( क ) पर्यावरण स्वपोषण और स्वनियन्त्रण प्रणाली पर आधारित है । 
( ख ) पर्यावरण में विशिष्ट भौतिक प्रक्रिया कार्यरत रहती है । 
( ग ) पर्यावरण भौतिक तत्त्वों का समह या तत्त्व समच्चय होता है । 
( घ ) भौतिक पर्यावरण भौतिक शक्ति का भण्डार है । 
( च ) पर्यावरण का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में पड़ता है । 
( छ ) पर्यावरण संसाधनों का भण्डार है । 
( ज ) यह जैव जगत का निवास्य या स्थान है । 
( झ ) इसमें क्षेत्रीय विविधता रहती है । 
( ट ) पर्यावरण परिवर्तनशील होता है । 
( ठ ) पर्यावरण में पार्थिव एकता पायी जाती है । 

पर्यावरण के भेद : भौतिक तथा सांस्कृतिक या मानव निर्मित पर्यावरण 
( Classification of Environment : Physical and Cultural Environment ) 

पर्यावरण के दो भेद हैं- 
( i ) भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण , ( ii ) सांस्कृतिक या मानव निर्मित पर्यावरण 

भौतिक या प्राकृतिक पर्यावरण 

भौतिक पर्यावरण से तात्पर्य उन भौतिक क्रियायों , प्रक्रियायों और तत्त्वों से लिया जाता है । जिनका मानव पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है । भौतिक शक्तियों में सौर्थिक शक्ति ( तापमान ) , पृथ्वी की दैनिक व वार्षिक गति गुरूत्वाकर्षण शक्ति भूपटल को प्रभावित करने वाले बल , ज्वालामुखी , भूकम्प आदि शामिल किये जाते हैं । इन शक्तियों द्वारा पृथ्वी पर अनेक प्रकार की क्रियाये होती हैं । इनसे पर्यावरण के तत्त्व उत्पन्न होते हैं । इन सबका प्रभाव मानव की क्रियायें पर पड़ता है । भौतिक प्रक्रियाओं में भूमि का अपक्षय , ताप विकिरण , संचालन , ताप संवहन , अवसादीकरण , वायु व जल की गतियाँ , जीवधारियों की गतियाँ , जन्म , मरण व विकास आदि आती हैं । इन प्रक्रियाओं द्वारा भौतिक पर्यावरण में अनेक क्रियायें उत्पन्न होती हैं । वे मानव के क्रिया कलापों पर अपना प्रभाव छोड़ती है । भौतिक तत्त्वों में उन तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है जो भौतिक शक्तियों तथा प्रक्रियाओं के फलस्वरूप धरातल पर उत्पन्न होते हैं । 

इन तत्त्वों के निम्न भेद हैं -
( 1 ) भाववाचक तत्त्व - प्रदेश की ज्यामितीय स्थिति , प्राकतिक संस्थिति प्रदेश का क्षेत्रफल । या विस्तार , प्रदेश की आकृति बै भौगोलिक अवस्थिति । 

( ii ) भौतिक तत्त्व - भूआकार , ऋतु एवं जलवायु , चट्टाने व खनिज , मिट्टियाँ , नदियाँ व जलाशय , भूमिगत जल , महासागर व तट । 

( iii ) जैविक तत्त्व - प्राकृतिक वनस्पति , प्रादेशिक जीव जन्त व सक्ष्म जीवाण । ये सभी तत्त्व मिलकर मानव पर्यावरण का निर्माण करते हैं और मनुष्य के जीवन को प्रभावित करते हैं । इसे प्राथमिक , प्राकृतिक और भौतिक पर्यावरण आदि नामों से जाना जाता है । 

 सांस्कृतिक या मानव निर्मित पर्यावरण : मानव द्वारा निर्मित सभी वस्तएं सांस्कृतिक पर्यावरण की अंग हैं - वह अपनी तकनीकी के बल पर प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वों को अपनी आवश्यकताओ के अनुरूप बना 
लेता है। वह भूमि को जोनकर कृषि करता है , जंगलों को साफ करता है ।  रेलमार्ग वा नहरें आदि बनाता है , पर्वतो को काटकर सुरंगे बनाता है , नई बस्तियाँ खनिज 
बसाता है, भूगर्भ से खनिज निकलता है, अनेक यन्त्र व उपकरण बनाता है तथा प्राकतिक शक्तियों से शोषण कर अपनी आवश्यकताआ का पूर्ति करता है । मानव द्वारा बनाई गयी को जन्म देती हैं , उसे मानव निर्मित संस्कृति या प्राविधिक पर्यावरण समस्त वस्तुएँ जिस संस्कृति को जन्म देती हैं , उसे मानव निर्मित संस्कृति असे मानव की पार्थिव संस्कृति भी कहा जा सकता है । मानव के सांस्कृतिक पर्यावरण में औजार , गहने , अधिवास , परिवहन व संचार के साधन ( वाय्यान , रेल मोटर प्रेस आदि सम्मिलित किये जाते हैं । मानव की शारीरिक व बौद्धिक क्षमतायें भी मानव संस्कतिकी है । ये मानव की सांस्कृतिक - विरासत है । संस्कृति के इस भाग को अपार्थिव संस्कृति कहते हैं । 

प्राकतिक पर्यावरण की तरह सांस्कृतिक पर्यावरण में भी शक्तियाँ , प्रक्रियायें और तत्व कार्य करते हैं । सामाजिक पर्यावरण मानव का नियमन माना जाता है तथा सामाजिक प्रक्रियाओं का निर्देशक भी माना जाता है । 

( i ) सांस्कतिक पर्यावरण की शक्तियों - इसमें मानव ( जनसंख्या ) . उसका वितरणा एवं घनत्व , लिंगानुपात , आयु - वर्ग , प्रजातिगत रचना , शारीरिक स्वास्थ्य , मानसिक क्षमता तथा जनसंख्या में वृद्धि और उसके कारणों को सम्मिलित किया जाता है । 

( ii ) सांस्कृतिक प्रक्रियायें - इसमें पोषण ( आहार ) , समूहीकरण , पुनरुत्पादन , प्रभुत्व , स्थानान्तरण , पृथक्करण , अनुकूलन , विशिष्टीकरण और अनुक्रमण को सम्मिलित किया जाता है । इन प्रक्रियाओं के द्वारा मानव व मानव समूह वातावरण से सामजस्य स्थापित करते हैं । 

( iii ) सांस्कृतिक तत्त्व - व्हाइट एवं रेनर के अनुसार सांस्कृतिक पर्यावरण के तत्त्वों में निम्न तीन प्रति रूप होते हैं 

( क ) सामाजिक नियन्त्रण के प्रतिरूप - लोक रीतियाँ , रीति - रिवाज , मान्यतायें , आदर्श , संस्थायें - सरकार , विवाह - प्रथा , प्रशासन , कानून , पुलिस , युद्ध , विद्यालय , प्रेस आदि । 

( ख ) क्रिया - सम्बन्धी प्रतिरूप — मनुष्य के आर्थिक उद्यम , राजनीतिक व सैन्य संस्थायें , शैक्षिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ , मनोरंजन एवं सौन्दर्य वृद्धि सम्बन्धी साधन । 

( ग ) सांस्कृतिक भूदृश्य या निर्माण प्रतिरूप - इसके अन्तर्गत भूमि , उसका वर्गीकरण तथा उस पर उत्पन्न भूदृश्य नहरें , कृषि फसलें , पशुपालन , बस्तियाँ , कृषि व्यवस्थायें , खदाने , फाक्ट्रया , बन्दरगाह , रेलमार्ग , सड़कें . संरक्षित स्थान ( उद्यान , वन , पार्क व मनोरंजन स्थल , श्मशान स्थल ) आवासीय बस्तियाँ , राजनीतिक सीमायें चंगी , चौकियाँ , सैन्य किले आदि सम्मिलित किये जाते हैं । 

मानव निर्मित पर्यावरण में पार्थिव संस्कृति में कल - कारखानों व यन्त्र उपकरणों का विशेष स्थान ह । इनकी सहायता से मनष्य अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं ( भोजन , वस्त्र , मकान ) की पुत करता है । इनके अलावा सांस्कृतिक पर्यावरण के अपार्थिव घटक भी महत्वपूर्ण हैं । इनसे मानव बा समाज की आदतों , रीति - रिवाजों , आस्थाओं और अभ्यासों का ज्ञान होता है । मानव 14 भाषा , कलाओं , वैज्ञानिक ज्ञान , धार्मिक भावना , धर्म , परिवार व सामाजिक व्यवस्था , सरकार , आर्थिक तन्त्र , संस्थायें , क्रीडा , संगीत , विशिष्ट संस्कार , उत्सव , पर्व , प्रथा आदि भी महत्वपूर्ण होती हैं जो पार्थिक संस्कृति का निर्माण करती है । 

मानव द्वारा पार्थिव और अपार्थिव संस्कृति का उपयोग आ यव आर अपार्थिव संस्कृति का उपयोग प्रायः साथ - साथ किया जाता है । इनसे मनुष्य की आवश्यकताओं और समस्याओं का निदान होता है । 
अतः स्पष्ट है कि भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत कि भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राकृतिक साम्राज्य की वे सभी शक्तियाँ , प्रक्रियायें तथा तत्त्व सम्मिलित हैं जिनका प्रभाव मा तत्त्व सम्मिलित हैं जिनका प्रभाव मानव की क्रियायों , भोजन , वस्त्र तथा आदतों आदि पर पड़ता है । दूसरी ओर सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत मानव को संचालित कर वाले और सामाजिक क्रियाओं को निर्देशित करने वाले तत्व सम्मिलित है , जो मानव के जीवन पर निर्धारण करते हैं । अनकलन पर्यावरण में जीवधारिया का काई काठनाइनहा हाती प्रतिकूल पर्यावरण में जीवों को रहने के लिए कठिनाई होती हा अनुकूल पयावरण उसे करते है । जो किसी जीवधारी के अस्तित्व की रक्षा विकास और उन्नति तथा वृद्धि मसहायक हाता है । इस विपरीत . जो पर्यावरण जीवधारी के अस्तित्व की रक्षा और विकास म बाधक हाता है , उसे प्रति पर्यावरण कहा जाता है । कभी - कभी एक ही पर्यावरण किसी प्राणी या समूह क लिए एक परिशि म अनुकूल हो सकता है तथा दसरी स्थिति में प्रतिकूल हो सकता हा भिन्न - भिन्न पर्यावरण भिन्न - भिन प्राणियों के लिए अनुकूल तथा प्रतिकूल हुआ करते हैं । 

पर्यावरण के अजैव तत्त्वों में जलवायु सबसे शक्तिशाली तत्व है । जीवनदायी गैस . ताप प्रकाश वर्धा व आर्द्रता के बिना जैव जगत की कल्पना करना कठिन है । भौतिक तत्व अपनी अन्तः प्रक्रिया से पर्यावरण को सन्तुलित रखते हैं । 

वर्तमान समय में पर्यावरण के तत्त्वों की व्यवस्था में मानव द्वारा अनेकों व्यवधान पैदा कर दिये गये हैं जिसके कारण पर्यावरणीय समस्याओं ने जन्म लिया है । आज इन्हीं समस्याओं ने पर्यावरणा अध्ययन के लिए मानव को विवश कर दिया है । पर्यावरण की कार्यप्रणाली बाधित होने के कारण उसकी गुणवत्ता में अन्तर आ रहा है जिसका प्रतिफल बीमारियों और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखने को मिल रहा है । इनसे मुक्ति पाने के लिए आवश्यक है कि पर्यावरण की गुणवत्ता बरकरार रखी जाय । 

पर्यावरण के प्रमुख घटक 

पर्यावरण के विभिन्न घटकों के तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है ।

( i ) जैविक पर्यावरण - इसमें सभी जीवधारी सम्मिलित हैं । 
( 2 ) भौतिक पर्यावरण — इसमें निर्जीव तत्त्व मिट्टी , जल तथा वायु आदि सम्मिलित है । 
( 3 ) सांस्कृतिक पर्यावरण - इसमें मानव और पर्यावरण के मध्य के सम्बन्ध सम्मिलित हैं ।

 पर्यावरण के प्रमुख घटकों का वर्गीकरण 

भौतिक पर्यावरण      जैविक पर्यावरण       सांस्कृतिक पर्यावरण 
1 . जल                    1 . हरे पौधे           1 . बस्तियाँ 
2 . वायु                    2 . पर्णहरित पौधे   2 . आर्थिक गतिविधियाँ 
3 . खनिज , शैल व मृदा 3 . सूक्ष्म जीव , कीटाणु 3 . धर्म 
4 . सौर ऊर्जा व ताप.   4 . प्राणी               4 . रहन - सहन की दशा 
5 . पृथ्वी के धरातल की संरचना 5 . मनुष्य   5 . राजनैतिक दशा
6 . अग्नि                                               6 . स्थानान्तरण  
7 . गुरुत्वाकर्षण                                     7 . पुनरूत्पादन 
 8 . भौगोलिक स्थिति                              8 . समायोजन 

भौतिक पर्यावरण और जैविकीय अथवा कार्बनिक पर्यावरण 
भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत अजैविक तत्व आते हैं जैसे 
( i ) सृष्टि सम्बन्धी - जैसे - सूर्य का ताप , विद्युत सम्बन्धी अवस्थायें , उल्कापात , चन्द्र के आकर्षण का ज्वार - भाटा का प्रभाव ।

( ii ) भौतिक - भौगोलिक जैसे पर्वत , समद्र , नदियाँ , घाटियाँ , दर आदि । 

( iii ) मिट्टी । 

( iv ) जलवाय - इसमें मख्यतया तापमान का सम्बन्ध , आर्द्रता तथा ऋतआ का चक्र आता है। 

( V ) अकार्बनिक पदार्थ - इसमें खनिज पदार्थ धातये तथा पृथ्वी के रासायनिक गुण आत है । 

( vi ) प्राकृतिक साधन जैसे - जल प्रपात . हवायें , ज्वार - भाटा , सूर्य की किरण आदि । 

( vii ) प्राकृतिक यांत्रिक प्रक्रियायें - जैसे - पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण आदि । जैविकीय और कार्बनिक पर्यावरण के अन्तर्गत निम्न तत्त्व आते हैं 

( i ) सूक्ष्म अवयव - इसके अन्तर्गत कीटाणु तथा बैक्टीरिया आदि आते हैं । 
( ii ) परोपजीवी कीटाणु - ये कीट फसलों पर प्रभाव डालते हैं । 
( iii ) पेड़ - पौधे । 
( iv ) भ्रमणशील पशु । 
( v ) हानिप्रद पशु और वृक्ष
( vi ) वृक्षों और पशुओं की परिस्थिति - यह प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को प्रभावित करती है । 
( vii ) पशुओं के जन्म के पूर्व का वातावरण । 
( viii ) प्राकृतिक जैविकीय प्रक्रियायें - इनमें प्रजनन , विकास , रक्त संचार तथा मल निर्गमन आदि की प्रक्रियायें आती हैं । 

भारतीय दर्शन में पर्यावरण 
( Environment in Indian Philosophy ) 
भारतीय दर्शन में पर्यावरण की अपेक्षा हमारे सृष्टि अथवा प्रकृति जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता , है । सृष्टि से तात्पर्य मूलरूप से चार घटकों से हैं जिन्हें वरीयता क्रम में निम्नलिखित चार सोपानों में रख सकते हैं । 
( i ) अण्डज ( अड़ों से पैदा होने वाले समस्त जीव , कीड़े - मकोड़े , साँप इत्यादि ) 
( ii ) पिण्डज ( गर्भपिण्ड से पैदा होने वाले जन्तु - मनुष्य आदि ) 
( iii ) स्वेदज ( शरीर के पसीने - मैल से पैदा होने वाले जॅ , चीलर आदि ) 
( iv ) उद्भिज ( जमीन के नीचे से पैदा होने वाली वनस्पतियाँ और पौधे ) 

ये चारों ही जीव अर्थात् धि क चैतन्य तत्त्व कहे गये हैं । इस विशुद्ध भारतीय सोच से देख . पर पर्यावरण जैसा शब्द गौण सा लगता है । आज पर्यावरण शब्द का अर्थ उपरोक्त परिभाषा क्रम के केवल चौथे नम्बर के ( उद्भिज - भेषज ) वृक्ष , वनस्पतियों आदि के संरक्षण - सवंर्द्धन से लगाया जाता है । कुछ पर्यावरणशास्त्री दूसरे वरीयता क्रम पिण्डज अर्थात् वन्य जन्तु तथा मानव को पर्यावरण के मूल में मानते हैं । वास्तव में ये दोनों ही सोच आधी - अधूरी है । वरीयता क्रम के दूसरे और चौथे सृष्टि तत्वों को सर्वप्रथम मानने की सोच बौद्धिक मनुष्य की अस्तित्ववादी जीवनरक्षा मूलक स्वार्थपरक सोच का ही उदाहरण है । इस दो नम्बर के पिण्डज जिसमें मनुष्य ने अग्रणी भूमिका निभाई है , ने चार नम्बर के उद्भिज - भेषज जीव जन्तुओं का सर्वाधिक दोहन - शोषण करके सृष्टि क्रम को छिन्न मन्न कर दिया हा यह सब कुछ मनष्यों ने स्वार्थपरक अन्न के भण्डारण तथा क्रय - विक्रय क लालच कअपान किया है । एक स्वास्थ्य तथा सामान्य सहज सृष्टि क्रम का अर्थ इन चारों जाव तत्त्वा का पारस्पारक सन्तुलन - संवर्द्धन व सहअस्तित्व से है । यह भाव ब्रह्म की सृष्टिवादिता को आदर , श्रद्धा तथा प्रम स दखन की प्राचीन भारतीय सोच का एक विशेष अंग है । इसमें अत्यधिक महत्वपूर्ण तथ्य कि हम वा का साष्ट्र के वरीयता क्रम का पर्णरूपेण आयाम देकर पर्यावरणीय अध्ययन कर तभी सार्थकता बन सकती है । 

वरीयता क्रम का पहला घटक अण्डज ( छोटे से छोटे कमि , कीट आदि ) प्राणी ही सृष्टि के प्रथम श्रेणी के जीव हैं जिन्हें पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ व सर्वप्रथम जीव कहलाया जाना चाहिए । अण्डों से उत्पन्न जीव ही ( साँप से लेकर डायनासोर तक के विशालकाय आण्डज ) मूल में है न कि मनछ । इसलिए सर्वप्रथम इन जीवों के रक्षण , संर्वद्धन तथा विकास के विषय में सोचना चाहिए । ये लाखों आण्डज - कमि कीट मिट्टी को बनाते हैं । ये शनैः - शनैः कृतर - कुतर कर तथा चवा पृथ्वी के ऊपर के आवरण को तैलीय , जलीय , उर्वरक तथा मिट्टी में लास्य पैदा करते हैं । इन अनि महत्वपूर्ण अण्डजों को आज अति उत्पादन के पश्चिमी भोगवादी सिद्धान्त के आधार पर कमिनाया । तथा कीटनाशक रसायनों से नष्ट किया जा रहा है । इस दशा में इन रासायनिक खादों तथा दवाओं का पूर्ण परित्याग करके विशुद्ध भारतीय परम्परावादी कृषक सोच को अपनाना चाहिए । 

पर्यावरण सम्बन्धी सिद्धान्त 
( Environmental Theories ) 

पर्यावरण सम्बन्धी सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

 ( i ) सीमाकारी कारकों का सिद्धान्त सर्वप्रथम 1940 में लिविंग महोदय ने अपने । शोध द्वारा यह स्पष्ट किया है कि पादप वृद्धि उसको प्राप्त खनिजों में सबसे कम मात्रा में उपस्थित खनिज पर भी निर्भर करती है । इसे बाद में ' लिविंग का न्यूनतम का नियम ' कहा गया है । इसके अनुसार यदि किसी पौधे की वृद्धि के लिये एक तत्व को छोड़कर शेष सभी आवश्यक तत्व पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हों , तभी भी पौधे की वृद्धि उस एक न्यूनतम मात्रा वाले तत्व द्वारा नियंत्रित होती है । बाद में 1905 में ब्लैक मैन ने भासंश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों पर कार्य करते हुए “ सीमाकारी कारकों का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । इनके अनुसार किसी भी जीवन क्रिया की गति सीमाकारी मात्रा में मिल रहे कारक पर निर्भर करती है । 

( ii ) सहनशीलता की सीमा का सिद्धान्त - 1913 में शैलफोर्ट ने न्यूनतम सीमा के साथ - साथ अधिकतम सीमा का नियम बताया है । शैलफोर्ड के अनुसार यदि कोई कारक अत्यधिक नात्रा में उपस्थित हो , जैसे मिट्टी में किसी एक तत्व की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो , अथवा यूनतम मात्रा में हो जैसे ताप , तो भी जीवों की वृद्धि तथा जनन क्रिया पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है । शैलफोर्ड ने न्यूनतम सीमा के नियम को बदलकर सहनशीलता की सीमा के नियम का प्रतिपादन किया है । 
इस नियम के अनुसार किसी भी जीव के लिये भौतिक पर्यावरण के कारकों को सहन कर सकने की एक न्यूनतम व एक अधिकतम सीमा होती है इस न्यूनतम व अधिकतम सीमा के बीच किसी एक स्थान पर वह सीमा होती है जिस पर उस कारण की उपस्थिति में जीव की वृद्धि व जीवन । क्रिया की दर अधिकतम होती है । इसको उपयुक्त सीमा कह सकते हैं । 

पर्यावरण पर वर्तमान दृष्टिकोण 
( Present View on Environment ) 

वर्तमान में पर्यावरण को समझने तथा उसकी सभी बाधाओं को दूर कर उसे सन्तुलित एवं जन उपयोगी बनाने के लिए मनुष्य के अपने दृष्टिकोण को लक्ष्य केन्द्रित तथा परिणाम केन्द्रित करना होगा । पर्यावरण के वर्तमान दृष्टिकोण को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है | 

( I ) पर्यावरण संरक्षा - पृथ्वी पर मानव द्वारा की गयी पर्यावरणीय दशा सोचनीय बनती । चली जा रही है , जिसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है । प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण एवं सुरक्षा करना हमारा संवैधानिक मूल कर्त्तव्य है । 

( ii ) पर्यावरण के प्रति जन जागृति - जन - मानस को पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं से अवगत कराकर उनसे हो सकने वाले दुष्परिणामों की जानकारी दी जानी चाहिए । इन समस्याओं के निराकरण हेतु उनकी भूमिका के महत्त्व को भी समझाना चाहिये । स्वयंसेवी संस्थाओं के महत्त्वपूर्ण । योगदान को समझने और समझाने की जरूरत है । 

( iii ) पर्यावरणीय शिक्षा की आवश्यकता एवं औचित्य - विश्वव्यापी समस्या का समाधान केवल योजना निर्माण और उसकी क्रियान्वति से ही सम्भव नहीं है । इसके लिए व्यवस्थित रूप से पर्यावरण शिक्षा का प्रावधान प्रत्येक स्तर के लोगों के लिये करना चाहिए , चाहे वह छात्र हो अथवा । कार्यरत कर्मचारी और अधिकारी , चाहे वह शिक्षित हो अथवा अशिक्षित । सभी लोगों के लिये आवश्यक सामग्री का चयन तथा उसे प्रदान करने का तरीका अत्यन्त व्यावहारिक बनाना चाहिए । 

( iv ) पर्यावरण सरक्षा - संरक्षित की गई स्थिति की सुरक्षा तथा उसकी आवश्यक देखभाल इस पद के अन्तर्गत आती है । पर्यावरण को हर स्थिति में विनाश से बचाना है तथा प्रकति के विविध कार्यकलापों को आबाध गति से चलते रहने हेतु प्रयत्नशील रहना है । वस्तओं का सदपयोग भी सुरक्षा में सम्मिलित किया जा सकता है । 

( v ) प्रदूषण की रोकथाम - वायु , जल , भूमि , वाहन तथा ध्वनि प्रदूषण आदि से जनमानस अत्यन्त अस्त तथा त्रस्त है । वह उपाय करने है जिससे भविष्य में हर क्षेत्र के प्रदूषण को रोका जा सके । अवशिष्ट के निस्तारण की समस्या का हल भी खोजना अत्यन्त आवश्यक हो गया है क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप से यह भी प्रदूषण ही फैला रहे हैं और विश्व भर में मानव की चिन्ता के कारण बन रहे हैं । प्रदूषण को रोकने हेत राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर बनाये गये कानूनों की सख्ती से अनुपालन करनी और करानी चाहिए । 

( vi ) अन्य समस्याओं का निराकरण - अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ मूल रूप से एक या कुछ समस्याओं से जुड़ी हैं , अतः समाधान खोजने हेत मल समस्याओं के निराकरण की बात सोचना उचित एवं उपयुक्त है । उदाहरण के लिए वनों का विनाश न करने से जाने कितनी पर्यावरणीय समस्याएं स्वतः हल हो जायेंगी । उद्योगों में आवश्यक क्षमता के प्रदुषण नियन्त्रक लगाने में वायुमण्डल और जलमण्डल की अनगिनत समस्याओं का समाधान निहित है आदि । यह दृष्टिकोण प्राकृतिक तथा मानवक़त दोनों प्रकार के पर्यावरण हेतु आवश्यक है । 

( vii ) पर्यावरण सुरक्षा - जितना भी पर्यावरण विकत हो गया है अथवा उसका हास हो रहा है , उसे सुधारने हेतु भी व्यावहारिक प्रयास किये जाने की महत्ती आवश्यकता है । घने जंगल लगाये जायें , वन्य जीवों की सुरक्षा का प्रावधान हो , जल स्रोतों की स्वच्छता बनाई रखी जाये , माइनिंग से विकृत स्थलों को मनोरंजन स्थल के रूप विकसित किया जाये , आवासीय कॉलोनियों अथवा कस्बे व गांव के बीच बन गये ' गन्दगी केन्द्र ' को बच्चों के खेलने के मैदानों में परिवर्तित किया जाय , स्वचालित वाहनों का उपयोग कम किया जाये , भूमि क्षरण रोकने की पूजा व्यवस्था हो , खेतों में पारम्परिक कार्बनीय खादों के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाये आदि । 

( viii ) लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाना - हर एक व्यक्ति की यह सोचने की कि विश्व में अकेल मेरे असामान्य कार्य करने से क्या फर्क पड़ता है , को अब परिवर्तन की आवश्यकता है । सब मिलकर चाहे कोई अच्छा अथवा सही कार्य कर पाने में सफल न हों , लेकिन किसी एक व्यक्ति के अवांछनीय कृत्य से हाहाकार मच सकता है । लोगों में अब ' बूंद - बूंद जल भरहि तालाबा ' की सोच को जगाना होगा । सभी लोग जो भी इस पृथ्वी पर रहते हैं उनका यह उत्तरदायित्व है कि वह इस पर्यावरण को शुद्ध , स्वच्छ व सन्तुलित रखें । 

( ix ) पर्यावरणीय आचार संहिता का विकास करना - पर्यावरण की समस्या मानव द्वारा ही उत्पन्न हुई है , विशेषतः उनकी अधिक आबादी और उनके गलत क्रियाकलापों द्वारा । अतः कर सत्य यहा ह कि इनका हल भी मनष्य द्वारा ही किया जाना चाहिये । यह उनका नैतिक दायित्व आर कतव्य भी । पर्यावरणीय आचार संहिता का निर्माण किया जाना चाहिए आर उसका कठोरता से स्व - पालन करना चाहिये । -

( x ) पर्यावरण के क्षेत्र में प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता - हर स्तर पर , उच्च अधिकारी से लेकर निम्न कर्मचारी तक , प्राशाक्षत प्रशिक्षित व्यक्तियों के उपलक्या न हो पाने के कारण पर्यावरण सम्बन्धी योजनाओं की सफल क्रियान्विति नहा हा कियान्विति नहीं हो पा रही है । उचित प्रकार सक्रियान्वयन का मानीटरिंग भी आवश्यक है । पर्यावरण को अलग स एक काय समझ करना । किया जाना चाहिये बल्कि इसे प्रत्येक विभाग के कार्यों से जोड़ना चाहिए , तभी एक सही । प्रस्तुतीकरण सम्भव है । 

( xi ) विदेशी में पर्यावरण संरक्षण देत अपनाये गये तरीकों की नवीनतम जानकारी - चावरण सकट विश्वव्यापी है और अनेक देशों ने , जिनमें इंग्लण्ड , अमरिका , ऑस जमना , स्वीडन , फिनलैण्ड फान्स डेनमार्क जापान , कनाडा , आदि शामिल हो वे विश्व तेजाबी वर्षा और ओजोन पर्त का क्षय आदि समस्याओं के समाधान हतु विज्ञान तथा तकनीकी जान । का सहारा लेकर प्रयत्नशील हैं । ऐसे देशों की कार्य - योजनाओं का अध्ययन हमें अपने लाल निर्धारण करने तथा उसकी क्रियान्विति में बहत सहायक हो सकते हैं । । 

( xii ) सरकार की नीति व कार्यविधि - आज की आवश्यकता को वरीयता देते हा सरकार को पर्यावरण की नीति बनानी चाहिये तथा इस प्रकार की कार्यविधि अपनाई जानी चाहिए । जिससे वांछनीय परिणाम प्राप्त हो सकें । अपने अधीन समस्त अधिकारी / कर्मचारियों को ऐसे स्पा निर्देशन होने चाहिए जिससे पर्यावरण विकृति के किसी कार्य से वह समझौता न करें । केवल महत्वाकांक्षी योजना को निरुत्साहित कर व्यावहारिक कार्य पक्ष को प्रधानता देना आवश्यक है । ' विश्व स्तर पर सोचों , लेकिन स्थानीय परिपेक्ष में काम करो ' के सिद्वान्त का अनुसरण उचित एवं उपयुक्त है । 

 ( xiii ) पर्यावरण के क्षेत्र में शोध - विज्ञान और टेक्नोलॉजी की निरन्तर प्रगति ने । पर्यावरण क्षेत्र को कई नई दिशायें दी हैं तथा कई समस्याओं को हल करने की पेशकश भी की है जिन्हें इसलिये प्रयोग में नहीं लिया जा सका है क्योंकि वह महँगी हैं । शोध के माध्यम से कम व्यय वाली तकनीक का विकास किया जाना चाहिये । 

( xiv ) पर्यावरण साहित्य का निर्माण और उसका वितरण - पर्यावरण साहित्य का निर्माण किया जाना अपेक्षित है , जो सरल , स्पष्ट , सही और लोगों को ग्राह्य हो । मूलभूत बिन्दुओं की स्पष्टता से ही पर्यावरण की आन्तरिक स्थिति का भान - जन - मानस को दिया जा सकता है । यह व्यवस्था भी साथ में आवश्यक है कि इस साहित्य का व्यापक वितरण और प्रसार हो । 

( xv ) मीडिया की प्रभावी भूमिका - समाचार पत्र , पत्रिकाएँ , आकाशवाणी और दूरदर्शन की भूमिका बहुत ही व्यापक और स्पष्ट रूप से नियत की जानी चाहिये । पर्यावरण के किसी भी क्षेत्र । की जानकारी प्रस्तुत करते समय उससे पाठक , श्रोताओं और दर्शकों को भय से भी बचाना चाहिये । तथा उनके मनोबल को बढ़ाना चाहिये । उल्लेखनीय है कि मीडिया द्वारा अनौपचारिक शिक्षण मनुष्य की मनोवृत्तियों में ऐसा परिवर्तन ला सकता है जिससे वह पर्यावरण विकृति को दूर करने तथा । पर्यावरण सुधार लाने में अपनी महती भूमिका निभा सकें । 

( xvi ) नगर नियोजन को महत्त्व - नगर नियोजन में आबादी के बहत पास प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग न हों तथा हरित पट्टी से नगर घिरा हो , यह तभी सम्भव है जबकि नगर नियोजन को महत्त्व दिया जाये जो अत्यन्त आवश्यक है । बस स्टैण्ड , रेलवे स्टेशन , मनोरंजन स्थल , प्रोवीजन एवं अन्य स्टोर , आदि कहाँ हो यह भी नगर नियोजन के अन्तर्गत लिया जा सकता है । जिससे रहने वाले व्यक्ति पर्यावरणीय विपदाओं से अधिक - से - अधिक दूर रहें । 

( xvii ) अवशिष्टों का पुनः चक्रण - अनेक पदार्थ / वस्तुएं ऐसी हैं जिनका उपयोग के बाद पुनः चक्रण किया जा सकता है । इनमें कागज , प्लास्टिक , लोहे के स्क्रेप्स , शीशे के टुकड़े , आदि प्रमुख है । कूड़ा - कचरा तो इन दिनों खाद के रूप में चक्रित अनेक देशों में किया ही जा रहा है । 

 प्राकृतिक पर्यावरण संकट 

प्राकृतिक पर्यावरणीय मानव के ऊपर आक्समात् आता है , धार्मिक भावना वाले लोग इसे ईश्वरीय प्रकोप कहते हैं । इसमें भूकम्प , बाढ़ , सूखा , कहरा , वर्षा , चक्रवात , बिजली , पाला . ओलावृष्टि , तूफान , बवण्डर आदि आते हैं ।
 प्राकृतिक पर्यावरणीय संकटों हेतु मानवीय क्रियाएं सिद्धान्ततः कोई भूमिका नहीं निभाती हैं . परन्तु अब पर्यावरण विशेषज्ञ कुछ संकटों के लिए मनुष्य को उत्तरदायी मानते हैं , जैसे - अधिक । वनों की कटाई से बाढ़ और सूखा की घटनाओं में वृद्धि अथवा भूगर्भीय जल के अधिक दोहन से रेगिस्तानी क्षेत्रों में वृद्धि और भूकम्पों की संख्या में बढ़ोतरी , आदि । जलवायु परिवर्तन में भी अब मनुष्य के क्रियाकलापों को जोड़ा जाने लगा है जिससे पाला , कुहरा और ओलावृष्टि जैसी भयंकर घटनाओं को मदद मिलती है । 
इन संकटों को दैविक प्रकोप के रूप में मानकर भी यह जानना अत्यन्त आवश्यक होता है कि किसी अमुक दुर्घटना की गम्भीरता क्या है ? उसके मापन हेतु अलग - अलग घटनाओं के लिए अब अलग - अलग मापनी बनाये गये हैं । 

सुन्दर भविष्य के लिए हमारा उत्तरदायित्त्व 

संसार की बहुत सी पर्यावरणीय समस्याओं में से हमें अपने देश में किन - किन समस्याओं से जूझना है ? उनके दूर करने के क्या उपाय या तरीके हो सकते हैं ? हमारी क्षमताएँ , साधन - सुविधाएँ क्या और कितनी है ? हम उन्हें सूचीबद्ध कर सकते हैं । प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता और उचित उपयोग , वायु , जल , भूमि और इनके प्रदूषण के कारण और निवारण , ध्वनि प्रदूषण , बढ़ती जनसंख्या , शहरीकरण , औद्योगीकरण , ग्रीन हाउस प्रभाव , ओजोन पर्त का क्षय , नम भूमि और बंजर भूमि की समस्याएँ , स्वचालित वाहनों से प्रदूषण , पर्यावरणीय कानून , ऊर्जा व उसके वैकल्पिक स्रोत , राष्ट्रीय पर्यावरण नीति और पर्यावरणीय शिक्षा , आदि वह विचार बिन्दु हो सकते हैं जिन पर हमें शांति से सोचना है तथा उन पर जन - साधारण की जिम्मेदारी निश्चित करनी है । हमारा सुन्दर भविष्य हमारे अपने उत्तरदायित्व को निवाहने में निहित है । 

यदि हम पर्यावरण की गुणवत्ता अथवा अच्छे और स्वच्छ पर्यावरण की बात करें तो एक अच्छा पर्यावरण क्या है ? इस पर अनेक लोगों के अनेक मत हो सकते हैं , जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि उनके सोचने का , रहने का और यहाँ तक कि खाने - पीने का और काम करने का तरीका क्या है ? पर फिर भी सभी इस बात में एकमत होंगे कि कूड़ा - करकट , धूल , रोग , प्रदूषण , शोर , कलह , गरीबी और निम्न स्तर सभी पर्यावरण की गुणवत्ता को कम करते हैं । साथ ही अधिक भीड़ , तनाव , डर , चिन्ताएं . विद्रोह और अस्वस्थता भी जीवन की सुन्दरता का क्षति पहुंचात हा अतः अच्छे जीवन को जीने के लिए इन दोनों प्रकार की अनचाही बातों से दूर रहना आवश्यक है । हम यही स्वीकार कर सकते हैं कि जीवन की गणवत्ता का ठोस आधार पर्यावरण की गुणवत्ता ही हो सकती है । अतः शुद्ध पानी , स्वच्छ भोजन , निरापद वाय , साफ - सुथरा आवास और बिना किसी प्रदूषण के वातावरण एक अच्छे पर्यावरण के आवश्यक घटक हैं . लेकिन जीवन जीन के लिए मानसिक रूप से सस्वस्थ होना और प्रकति से विरासत में मिले विभिन्न पदार्थ का ठीक से उपभोग करना भी उतना ही आवश्यक है ।
                               
                                  Author
आलोक वर्मा ( कृषि परास्नातक ) 
   शस्य विज्ञान, बीएड