अनुसंधान परिकल्पना के स्रोत ( Sources of Research Hypothesis )

अनुसंधान परिकल्पना के स्रोत 
( Sources of Research Hypothesis ) 

निःसन्देह अनुसंधान कार्य में परिकल्पना का निर्माण करना एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा गम्भीर निर्माण किया जा सकता है । अनुसंधान परिकल्पना स्वयं में परिकल्पित होने के बावजूद भी व्यावहारिक कार्य है । परन्तु अनुसंधान परिकल्पना का निर्माण न तो अनायास हो जाता है और न शून्य में इसका रूप से वास्तविकता के धरातल पर आरूढ़ रहती है । परिकल्पना का निर्माण करते समय को उसे बनाने के पीछे निहित तर्काधार ( Rationale ) भी देना होता है । प्रायः अनुभव , अवलोकन तथा अगमन - निगमन तर्क के आधार पर परिकल्पना का निरूपण किया जाता है , परन्तु सृजनशील चिन्तन सूझ तथा परिसंवाद आदि की भी परिकल्पना निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । यहाँ यह इंगि करना उचित ही होगा कि एक ही समस्या के लिए विभिन्न अनुसंधानकर्ता भिन्न - भिन्न परिकल्पनाएँ बना सकते हैं , परन्तु इनमें से प्रत्येक परिकल्पना किसी स्पष्ट तर्काधार पर निर्भर होनी चाहिए एवं प्रत्येक अनुसंधानकर्ता को अपनी - अपनी परिकल्पना की पुष्टि या सत्यापन करना होता है । अनुसंधानकर्ता द्वारा बनाई परिकल्पना वस्तुतः समस्या से सम्बन्धित उसके ज्ञान , अनुभव व सृजनात्मक चिन्तन पर निर्भर करती है । यही कारण है कि किसी अच्छी व तार्किक अनुसंधान परिकल्पना का निर्माण करने के लिए अनुसंधानकर्ता को अनेक स्रोतों से सामग्री का संकलन करना पड़ता है । परिकल्पना निर्माण के प्रमुख स्रोतों की चर्चा आगे की जा रही है । 

( i ) सम्बन्धित साहित्य ( Related Literature ) - परिकल्पना निर्माण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोग में आने वाला स्रोत सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन करके समस्या की पृष्ठभूमि का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करना है । सम्बन्धित प्रकरण की सैद्धान्तिक स्थिति , पूर्व में किये गये अनुसंधान कार्य तथा अनियमितता व असमानताओं की सम्यक जानकारी परिकल्पना निर्माण में अत्यन्त सहायक होती है । अतः परिकल्पना बनाने से पूर्व अनुसंधानकर्ता को अनुसंधान समस्या से सम्बन्धित साहित्य का समीक्षात्मक अवलोकन अवश्य कर लेना चाहिए । इससे वह उस क्षेत्र के मूलभूत सम्प्रत्ययों , सैद्धान्तिक दृष्टिकोणों तथा अनुसंधान परिणामों से परिचित हो जाता है तथा तद्नुक्रम में अपने अनुभवों , अवलोकनों तथा अन्तर्दृष्टि के सापेक्ष विश्लेषित करके अपनी परिकल्पना बना सकता है । इस प्रकार से बनी परिकल्पना का तर्काधार सुदृढ़ , निष्पक्ष एवं सत्याभासित होने के कारण उसे एक अच्छी परिकल्पना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । 

( ii ) पूर्व - अनुभव ( Previous Experiences ) – सम्बन्धित क्षेत्र विशेष में अनुसंधानकर्ता के पूर्व अनुभव भी उसके द्वारा बनाई जा रही अनुसंधान परिकल्पना का आधार हो सकते हैं । वस्तुतः व्यक्ति के वैयक्तिक अनुभव जितने अधिक व्यापक , विस्तृत तथा गहन होते हैं उसे समस्या की खोज करने तथा परिकल्पना के निर्माण में उतनी ही अधिक सहजता होती है । अनुभव से व्यक्ति अपने परिवेश में हो रही अन्तःक्रियाओं प्रक्रियाओं तथा घटनाओं के स्वरूप को जान सकता है । इससे हुये इन्द्रियानुभव अनुसंधानकर्ता को अपनी परिकल्पना निर्माण करने में सार्थक योगदान कर सकते है । 

( iii ) अवलोकन ( Observation ) - अनुसंधानकर्ता के द्वारा दिन - प्रतिदिन अवलोकित की जा रही परिस्थितियाँ भी अनुसंधान परिकल्पना के निर्माण का एक अच्छा स्त्रोत होती है । अपनी बदलती ई परिस्थितियों के सूक्ष्म अवलोकन से वह उनके सम्बन्ध में तटस्थ व वस्तुनिष्ठ जानकारी प्राप्त कर लेता है जो परिकल्पना निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं । 

( iv ) सादृश्यता ( Analogy ) - सादृश्य प्रकरणों के अवलोकन व जानकारी से अनुसंधानकर्ता से कभी - कभी ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं जो परिकल्पना निर्माण में अत्यन्त सहायक सिद्ध होते हैं । दो सादृश्य परिस्थितियों में स्पष्टीकरण व व्याख्या की मूल प्रकृति को एक जैसा माना जा सकता है एवं एक के बारे में सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक ज्ञान होने पर दूसरे के लिए उसी आधार पर परिकल्पनाएँ बनाई जा सकती है । सादृश्यता , परिस्थितियों , व्यक्तियों व चरों में से किसी में भी हो सकती है , एवं सावधानी से प्रयोग किये जाने पर परिकल्पना का आधार बन सकती है । 

( v ) सांस्कृतिक विरासत ( Cultural Heritage ) - परिकल्पना निर्माण का एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत सांस्कृतिक विरासत को माना जा सकता है । ऐतिहासिक सामाजिक व मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों में इस स्रोत का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । प्रत्येक समाज की अपनी एक सांस्कृतिक विरासत होती है जो एक भिन्न सामाजिक दृष्टिकोण को जन्म देती है । समस्याओं के समाधान में सामाजिक दृष्टिकोण की 

( vi ) सूझ ( Insight ) - अनुसंधानकर्ता को अचानक मिली सूझ भी परिकल्पना निर्माण में सहायता कर सकती है । अनुसंधान समस्या से चिन्तित अनुसंधानकर्ता के समक्ष कभी - कभी सार्थक परिकल्पना अनायास ही उपस्थित हो जाती है । इसलिए अनुसंधानकर्ता को अपनी अनुसंधान समस्या से सम्बन्धित समस्त घटनाओं के प्रति सजग दृष्टिकोण रखना चाहिए एवं हो रहे परिवर्तनों को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए । न्यूटन , आर्कमिडीज व वॉट के अनुसंधान कार्यों में परिकल्पना अचानक ही सूझी थी । 

( vii ) सृजनात्मक चिन्तन ( Reflective Thinking ) - सृजनात्मक चिन्तन भी परिकल्पना के निर्माण में महत्त्वपूर्ण , भूमिका अदा कर सकता है । विद्यमान ज्ञान से भली - भाँति परिचित तथा बहुमुखी प्रतिभा से युक्त अनुसंधानकर्ता लीक से अलग हटकर सोच सकता है । उसका यह परावर्तित चिन्तन उसके द्वारा अनुभूत समस्या के समाधान के सम्भावित विकल्प को प्रस्तुत कर सकता है । सृजनात्मक चिन्तन से परिकल्पनाओं की आकस्मिक उत्पत्ति के उदाहरण दुष्प्रायः नहीं है । पावलव ने अनुबन्धन के क्षेत्र में तथा फ्रॉयड ने मनोविश्लेषण के क्षेत्र में किये अपने अनुसंधान कार्यों में आकस्मिक ढंग से सृजनात्मक चिन्तन के आधार पर परिकल्पना बनाकर किया था । 

( vi ) परिसंवाद ( Discussion ) - अनुभवी व्यक्तियों से किये गये विचार - विमर्श भी परिकल्पना निर्माण के अच्छे स्रोत हो सकते हैं । जो व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष में कार्य कर चुके हैं या कार्य कर रहे हैं उनसे परिचर्या करने पर समस्या के अनेक अनछुए पहलूओं पर प्रकाश पड़ सकता है । ऐसे व्यक्ति समस्या के गूढार्थों को समझते हुए समस्या के सम्बन्ध में अपने तार्किक विचार प्रस्तुत कर सकते हैं । उनके विचार परिकल्पना निर्माण में सहायक होते हैं । 

( ix ) पूर्व अनुसंधान ( Previous Researches ) - समस्या में सम्मिलित चरों के सम्बन्ध में पूर्व के अनुसंधानकर्ताओं ने क्या परिकल्पनायें बनाई थी एवं उनके परीक्षण से क्या परिणाम प्राप्त किये थे , परिकल्पना निर्माण में यह भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी सिद्ध होती है । वस्तुतः किसी नई खोज का उपक्रम विद्यमान ज्ञान भण्डार के सातत्य में ही निहित होना चाहिए । अतः अनुसंधानकर्ता को अपने अध्ययन से सम्बन्धित विद्यमान अनुसंधान परिणामों के साथ - साथ उनमें प्रयुक्त अनुसंधान योजना व प्राप्त अनुभवों की भी सम्यक जानकारी होनी चाहिए ।