पर्यावरण संरक्षण (ENVIRONMENTAL CONSERVATION)

 

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IX. लोग, विकास और पर्यावरण

 

·       विकास और पर्यावरणः मिलेनियम विकास और संपोषणीय विकास का लक्ष्य, मानव और पर्यावरण संव्यवहारः नृजातीय क्रियाकलाप और पर्यावरण पर उनके प्रभाव पर्यावरण मुद्देः स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, अपशिष्ट (ठोस, तरल, बायो-मेडिकल, जोखिमपूर्ण, इलेक्ट्रोनिक) जलवायु परिवर्तन और इसके सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक आयाम

·       मानव स्वास्थ्य पर प्रदूषकों का प्रभाव

·       प्राकृतिक और उर्जा के स्त्रोत, सौर, पवन, मृदा, जल भू-ताप, बायो-मास, नाभिकी और वन

·       प्राकृतिक जोखिम और आपदाएं: न्यूनीकरण की युक्तियां

·       पर्यावरण (संरक्षण) आधिनियम (1986), जलवायु परिवर्तत संबंधी राष्ट्रीय कार्य योजना, अन्तर्राष्ट्रीय समझौते/प्रयास-मोंट्रीयल प्रोटोकाल, रियो सम्मेलन, जैव विविधता सम्मेलन, क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, अंतरराष्ट्रीय सौर संधि.

 

पर्यावरण की परिभाषा (Definition of Environment)

 

पूरे ब्रह्मांड में केवल पृथ्वी ही ऐसा ग्रह है, जहां पर जीवन संभव है। पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए हमें पर्यावरण की मौलिकता को बनाए रखने की आवश्यकता है। मनुष्य हो या अन्य जीव-जन्तु, सभी पर्यावरण की उपज हैं। उनकी उत्पत्ति, विकास, वर्तमान स्वरूप एवं भावी अस्तित्व सभी पर्यावरण की परिस्थिति पर ही निर्भर है।

 

पर्यावरण मूल रूप से फ्रेंच भाषा के ‘Environer' शब्द से बना है, जिसका अभिप्राय समस्त पारिस्थितिकी अथवा समस्त बाह्य दशाएँ होता है। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है–'परि' + 'आवरण', अर्थात् जिससे सम्पूर्ण जगत घिरा हुआ है। प्रकृति में वायु, जल, मृदा, पेड़-पौधे तथा जीव-जन्तु सभी सम्मिलित रूप में पर्यावरण की रचना करते हैं। सामान्यतया किसी स्थान विशेष में मानव के चारों तरफ (स्थल, जल, वायु, मृदा, आदि) का वह आवरण जिससे वह घिरा है, पर्यावरण (Environment) कहलाता है। पर्यावरण अनेक तत्वों का, मुख्यतः प्राकृतिक तत्वों का समूह है, जो जीव जगत को एकाकी तथा सामूहिक रूप से प्रभावित करता है। स्वच्छ पर्यावरण एक शांतिपूर्ण और स्वस्थ जीवन जीने के लिए बहुत आवश्यक है। स्वस्थ पर्यावरण प्रकृति के संतुलन को बनाए रखता है और साथ ही साथ पृथ्वी पर सभी जीवित चीजों को बढ़ने, पोषित और विकसित करने में मदद करता है।

 

पर्यावरण संरक्षण (ENVIRONMENTAL CONSERVATION)

 

पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाएं। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। पर्यावरण के साधारणत: दो स्वरूप होते हैं- अनुकूल (favourable)

 

और प्रतिकूल (unfavourable), अनुकूल पर्यावरण उसे कहते हैं, जो जीवधारी के अस्तित्व की रक्षा, विकास पुनरुत्पादन और उन्नति में सहायक होता है। इसके विपरीत, जो पर्यावरण जीवधारी के अस्तित्व की रक्षा विकास, पुनरुत्पादन और प्रगति में बाधक होता है, प्रतिकूल पर्यावरण कहा जाता है। जहां अनुकूल पर्यावरण मिलता है, वहाँ जीवधारी को अपने विकास में प्रायः कोई कठिनाई नहीं उठानी पड़ती, किन्तु जब प्रतिकूल पर्यावरण में उसे रहना पड़ता है, तो वह उसे अपने अनुरूप बनाने का प्रयास करता है। इस परिप्रेक्ष्य में भूगोलवेत्ता पर्यावरण और मानव के संबंधों का अध्ययन करता है।

 

पर्यावरण संरक्षण का महत्व

आज से ही नहीं बल्कि प्राचीन काल से पर्यावरण का बहुत महत्व रहा है, क्योंकि प्रकृति का संरक्षण करना मतलब उसका पूजन करने के समान होता है। हमारे देश में पर्वत, नदी, वायु, आग, ग्रह नक्षत्र, पेड़ पौधे यह सभी कहीं ना कहीं मानव के साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन बढ़ते विकास के कारण इसे लगातार नुकसान पहुंच रहा है। पर्यावरण सरंक्षण के महत्त्व से जुड़े कुछ बिंदु नीचे दिए गए हैं:

 

पर्यावरण सरंक्षण  वायु, जल और भूमि प्रदूषण को कम करता है।

बायोडायवर्सिटी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण सरंक्षण का बहुत अधिक महत्व है।

पर्यावरण सरंक्षण सभी के सतत् विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

हमारे ग्रह को ग्लोबल वार्मिंग जैसे हानिकारक प्रभावों से बचाने के लिए भी पर्यावरण सरंक्षण महत्वपूर्ण है।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम संसद द्वारा 23 मई 1986 को पारित किया गया था और 19 नवंबर 1986 को लागू किया गया था। इसमें चार अध्याय तथा 26 धाराएं होती हैं। इसे पारित करने का मुख्य उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयासों को भारत में विधि (कानून) बनाकर लागू करना है।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम

19 नवम्बर, 1986 से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। तदनुसार जल, वायु, भूमि – इन तीनों से सम्बन्धित कारक तथा मानव, पौधों, सूक्ष्म-जीव, अन्य जीवित पदार्थ आदि पर्यावरण के अन्तर्गत आते हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के कई महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं, जैसे-

1. पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण हेतु सभी आवश्यक कदम उठाना।

2. पर्यावरण प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन हेतु राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना।

3. पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना।

4. पर्यावरण सुरक्षा से सम्बन्धित अधिनियमों के अन्तर्गत राज्य-सरकारों, अधिकारियों और सम्बन्धितों के काम में समन्वय स्थापित करना।

5. ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना, जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सकें। उक्त-अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के लिये कठोर दंड का प्रावधान है।

पर्यावरण नियतिवाद (पर्यावरण निर्धारणवाद)

उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में एक अवधारणा विकसित हुई, जिसको हम 'पर्यावरण नियतिवाद' (environmental determinism) भी कहते हैं। इसके अनुसार यह पर्यावरण निर्धारित करता है कि किसी संस्कृति का कैसे विकास होगा। उदाहरण के लिए, यूरोपीय देशों का मानना है कि गर्म मौसम के देशों, जैसे भारत के लोग आलसी होते हैं, क्योंकि जीवन यापन के लिए उनको संघर्ष नहीं करना पड़ता है।

 

पर्यावरण संभाव्यता (पर्यावरण क्षमता)

बीसवीं सदी के प्रारम्भ में पर्यावरण नियतिवाद की अवधारणा पर्यावरण संभाव्यता या पॉसिबिलिस्म (environmental possibilism) की अवधारणा से प्रतिस्थापित हो गयी, जिसके अनुसार पर्यावरण लोगों की गतिविधियों को कई मायनों में अवरुद्ध कर सकता है, लेकिन यह तय नहीं कर सकता है कि वे सटीक रूप में कैसे व्यवहार करेंगे। ऐसी अवधारणा तकनीकी विकास के कारण विकसित हुई, जिसमें मनुष्य एक प्रकार निर्णायक की भूमिका में आ गया।